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________________ दुष्टाधिप होते दण्डपरायण - पुत्र इतना प्रजावत्सल है ! बेटा ! तुम अपने लिए भी कुछ माँग लो।" राजकुमार मूलराज बोले – “पिताजी ! मुझे बहुत प्रसन्नता होगी, यदि आप यह घोषणा करा दें कि जहाँ अकाल पड़ेगा, वहाँ के किसानों से कर नहीं लिया जायेगा ।" यह पुरस्कार देकर राजा को भी बहुत प्रसन्नता हुई । २ - यह है श्रेष्ठ राजा की प्रजावत्सलता का नमूना । कई राजाओं में इससे भी अधिक प्रजावत्सलता पाई जाती है । राजा रंतिदेव में इतनी प्रजावत्सलता थी कि अपने राज्य में घोर दुष्काल पड़ने पर राज्य का अन्नभण्डार आमजनता के लिए खोल दिया । स्वयं ४६ दिनों तक उपवासी रहे । पारणा के समय जो भी आया, उसे रोटी और पानी अपने पारणे के लिए आये हुए भोजन में से दिया । ऐसे राज्याधिप उत्कृष्ट प्रजावत्सल शासक कहे जा सकते हैं, जो प्रजा के हित के लिए अपने प्राणों को होमने के लिए तत्पर होते हैं । ३१ श्रेष्ठ राज्याधिप के राज्य में कोई चोर, डाकू, अनाचारी नहीं श्रेष्ठ राज्याधिप का इतना प्रभाव होता है कि उसके राज्य में कोई भी पापी नहीं रहता । पाप को अवकाश ही तब मिलता है, जब जनता के सुख-शान्ति और अमन-चैन में कोई बाधा हो । जहाँ प्रत्येक नागरिक के पास खाने-पीने - पहनने के पर्याप्त साधन हों, सभी यथालाभ सन्तुष्ट हों, दूसरों से ईर्ष्या न होती हो, सब अपनी धर्म-मर्यादा में चलते हों, किसी पर कोई आकस्मिक संकट आ पड़े तो धर्म-धुरंधर राजा उस संकट निवारण के लिए प्रयत्नशील रहता हो, वहाँ चोरी, डकैती, बेईमानी, रिश्वत खोरी, दुराचार और अनाचार को स्थान ही कैसे मिल सकता है ? Jain Education International राजा अश्वपति ऐसे ही एक आदर्श राजा हो गये हैं, जिनके राज्य में कोई भी चोर, डकैत, व्यभिचारी या अनाचारी नहीं था । For Personal & Private Use Only एक बार एक जगह अनेक ऋषि एवं ऋषिपुत्र आत्मा एवं ब्रह्म के बारे में विचार-विमर्श करने के लिए एकत्र हुए । विचार चर्चा कुछ उग्र हो गयी, वाद-विवाद बढ़ता गया, किसी एक निश्चय पर वे न पहुँच सके । अतः वे सभी महर्षि उद्दालक के पास पहुँचे । उन्होंने कहा - " इस वैश्वानर आत्मा का ठीक-ठीक ज्ञान तो अश्वपति नृप को है । हम सब उनके पास चलकर निर्णय करें तो अच्छा होगा ।" सभी लोग अश्वपति राजा के यहाँ पहुँचे । उन्हें अपने यहाँ आये देख अश्वपति को बड़ा हर्ष हुआ । उसने अभिवादन के पश्चात आसनादि दिये। फिर सबका चरण-प्रक्षालन किया । चन्दनमाला, पुष्प आदि से सत्कार ( पूजन ) किया। तत्पश्चात् उनके भोजन के लिए स्वादिष्ट सात्त्विक आहार स्वर्णथालों में भरकर तथा ऊपर से स्वर्णराशि दक्षिणा के रूप में निवेदित की । अभ्यागतों ने न तो भोजन को छुआ और न ही धन को । इस व्यवहार से अश्वपति को बड़ा आश्चर्य हुआ । वे हाथ जोड़कर बोले"अतिथिदेव ! मैं जानता हूँ कि शास्त्र में राजा का अन्न अपवित्र बताया गया है, www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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