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________________ दुष्टाधिप होते दण्डपरायण-२ २७ अब हमारा कोई दावा नहीं है । कृपा करके महारानीजी को इतना कठोर दण्ड न दीजिए।" _ महारानी बोली-“महाराज ! आपने जो कुछ न्याय किया है, वह उचित है । अब इसे न लौटाइए, मैं प्रसन्नता से इसका पालन करूंगी।" प्रजा-"महाराज ! हम रानीजी को ऐसा कठोर दण्ड दिलवाना नहीं चाहते, हमारी अब कोई फरियाद नहीं है, हम आपसे कुछ नहीं चाहते।" राजा वोले-"प्रजाजनो ! तुम्हारी भक्ति की मैं कद्र करता हूँ। पर न्याय के समक्ष मैं विवश हूँ। महारानी भी यही चाहती हैं। महारानी-"आपने न्याय की रक्षा की है, मुझे इस पर गर्व है कि मैं सच्चा न्याय पा सकी हूँ। सुझे आज्ञा दीजिए । मैं जाती हूँ।" महारानी ने अपने बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण उतार दिये और साधारण वेष में राजमहल से विदा हुई। राजघराने एवं सेठ-साहूकारों की स्त्रियों ने रानी को ऐसा करने से रोका, मगर उसने किसी की न मानी। उसने घर-घर जाकर बहनों से कहा- "बहनो! अगर मेरे प्रति आपकी सहानुभूति है तो मुझे मजदूरी के काम दो। मेरी इस प्रकार से सहायता करो। मैंने गरीबों पर अत्याचार किया है, उसका दण्ड मुझे भोगने दो।" इस प्रकार मजदूरिन बनी हुई रानी ने छह महीने तक श्रम करके सभी गरीबों की झोंपड़ियाँ बनवा दी और सबको सन्तुष्ट करके राजाज्ञा से पुनः महल में प्रवेश किया। ___ बन्धुओ ! यह है शिष्ट राज्याधिप में पाया जाने वाला अनिवार्य न्यायनिष्ठा का गुण ! जिस राज्याधिप में न्यायनिष्ठा का यह गुण नहीं होता, उसके राज्य में अराजकता छा जाती है । राजा न्याय के मामले में पक्षपात करता है तो प्रजा भी अन्याय पीड़ित होकर दुःखी हो जाती है। राजकर्मचारियों और अधिकारियों के अन्याय-अत्याचार की शिकार बनी हुई प्रजा उसको हृदय से बिलकुल नहीं चाहती। उसकी प्रतिक्रिया कभी न कभी भयंकर विद्रोह के रूप में अवश्य होती है । परन्तु न्यायप्रिय शिष्ट राज्याधिप इस बात को सह नहीं सकता। वह अपने राजपरिवार में होने वाले अन्याय को भी बर्दाश्त नहीं कर सकता । श्रेष्ठ राज्याधिप में वैभव, बल और अधिकार का अहंकार एवं प्रदर्शन नहीं होता, वह प्रजा के हित के लिए नम्रभाव से राज्यकार्य करता है। जो राजा शिष्ट एवं सज्जन होता है, वह राज्य का संचालन सेवा समझकर करता है। पाश्चात्य विचारक एजेसिलाउस (Agesilaus) के शब्दों में अच्छे राज्याधिप के लक्षण देखिये The king will best govern his realm who reigneth over bis people as a father doth over his children. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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