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________________ दुष्टाधिप होते दण्डपरायण–२ २१ "काम, क्रोध, लोभ, मोह, मान और मद, इन छः विकारों को छोड़ने पर राजा अवश्य सुखी होता है।" तस्करेभ्यो नियुक्त भ्यः शत्रुभ्यो नृप वल्लभात् । नृपतिनिजलोभाच्च प्रजा रोत् पितेव हि ॥ "राजा तस्करों-चोरों से, नियुक्त कर्मचारियों एवं अधिकारियों से, शत्रुओं से अपने प्रियजनों से तथा अपने लोभ (स्वार्थों) से प्रजा की पिता की तरह सुरक्षा करे।" इसके अतिरिक्त श्रेष्ठ राजा के लिए मद्यपान, परस्त्रीसेवन, शिकार, जुआ आदि दुर्व्यसनों तथा प्रजा पर अत्याचार और शोषण से सर्वथा दूर रहने का नीतिशास्त्र में यत्र-तत्र विधान मिलता है। ___ इन सब कारणों से जनता ने राजा को अपना सर्वश्रेष्ठ अधिपति माना, उसकी आज्ञा का ईश्वरीय आज्ञा की तरह पालन किया तथा उसे सर्वाधिक आदर और प्रतिष्ठा भी दी। सचमुच राम और कृष्ण जैसे धर्मपरायण प्रजावत्सल राजाओं ने जनता के हृदय में शासक का ही नहीं किन्तु आराध्य देव का स्थान पा लिया था। इसी प्रकार बाद में धर्मराज युधिष्ठिर, राजा विक्रमादित्य, राजा भोज, राजा चक्ववेण आदि अनेक प्रतापी एवं धर्मपरायण राजा भी हो गये हैं, जिन्होंने राजधर्म का पूर्णतया पालन करके प्रजा के हृदय में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया था। भारतीय प्रजा के मन में राजा के चरित्र की आज भी वही उदात्त तस्वीर खिंची हुई है। राजा कितने त्यागी और धर्मपरायण होते थे, इसे मैं राजा चक्ववेण के एक उदाहरण द्वारा आपको समझा दूं चक्ववेण राजा बड़े ही धर्मात्मा, सत्यवादी, अध्यवसायशील, त्यागपरायण, विरक्त, ज्ञानी, भक्त, तेजस्वी, तपस्वी और अनुभवी पुरुष थे। वे राजद्रव्य को दूषित समझकर अपने व अपनी पत्नी के उपयोग में नहीं लेते थे। प्रजा से राज्य संचालनार्थ जो भी कर लिया जाता, वह सारा का सारा प्रजा के सेवा-कार्यों में ही खर्च किया जाता था। उनके राज्य में रामराज्य की तरह कोई दुःखी न था। वे अपने व परिवार के जीवन-निर्वाह के लिए स्वयं खेती करते थे। अपने खेत में उत्पन्न अन्न से अपने परिवार का उदर भी भर जाता, कपास से वस्त्रों की पूर्ति हो जाती एवं खेत में पैदा हुई साग-भाजी, फल, मिर्च, हल्दी, अदरक आदि से व्यंजन का काम चल जाता, तथा खेत में उत्पन्न गन्ने से गुड़ मिल जाता । इस प्रकार राजा चक्ववेण का जीवन सीधेसादे सदाचारी किसान-सा था । छह घण्टे शयन एवं शरीर कार्य के अतिरिक्त उनका सारा समय प्रभुभक्ति, परोपकार, राजकार्य एवं कृषिकार्य में बीतता था। कहते हैं, इसी कारण चक्ववेण राजा का प्रभाव ऋषि, मुनि, देव, दानव, मानव, पशु-पक्षी सब पर पड़ता था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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