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४२ दुष्टाधिप होते दण्डपरायण-२
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं आपके समक्ष कल वाले विषय पर ही प्रकाश डालने का प्रयत्न करूँगा । यह विषय बहुत ही महत्त्वपूर्ण है और वर्तमान राजनीतिक क्षेत्र में भी प्रेरणा देने वाला है। इसलिए आज इसके अवशिष्ट पहलुओं पर ही मैं कुछ कहूँगा। महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में बताया है कि दुष्टाधिप का जीवन दण्डपरायण होता है, इसलिए मैंने पूर्व-प्रवचन में अधिप शब्द का अर्थ, तथा अधिप के गुणों और योग्यताओं के विषय में बताया था। पूर्व-प्रवचन में राज्याधिप के अतिरिक्त अन्य अधिपों तथा शिष्ट एवं सज्जन अधिपों के सम्बन्ध में ही कुछ कहा था। अब राज्याधिप तथा शिष्ट एवं दुष्ट राज्याधिप कैसे होते हैं ? इस पर मैं सर्वप्रथम चर्चा करना चाहता हूँ। उसके पश्चात् यह भी बताना चाहता हूँ कि राज्याधिप तथा दूसरे प्रकार के अधिप अपने जीवन और कर्तव्य से कैसे भ्रष्ट, पतित और दुष्ट बन जाते हैं ? उसका क्या प्रतिकार है ? साथ ही वर्तमान राजनीति में भी आये हुए धर्म के ह्रास के सम्बन्ध में भी कुछ कहूँगा। राज्याधिप को ही अधिप क्यों माना गया है ?
मैं पहले ही बता चुका हूँ कि राज्याधिपति को अधिप मानने की प्रथा क्यों और कब से चली ? वास्तव में, प्राचीन काल में इतने अधिकार ओर किसी को देने में जनता हिचकिचाती थी। उसे यह भय था कि अन्य किसी को आधिपत्य सौंपने से उसके निरंकुश और सत्तामदान्ध हो जाने का बहुत बड़ा खतरा है । जैसा कि त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में बताया है
आधिपत्यं हि प्रायोऽन्धीकरणं नराणाम् "अधिपतित्व मनुष्यों को प्रायः अन्धा बना देने वाला है।"
इसलिए शासक को ही अच्छा अधिपति समझकर उसे ही सब अधिकार सौंप दिये गये। पंचतन्त्र में राजा की विशेषताएँ तथा उपयोगिता बताते हुए कहा है
राजा बन्धुरबन्धूनां, राजा चारचाक्षुषाम् । राजा पिता च माता च सर्वेषां न्यायवर्तिनाम् ॥
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