SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनवस्थित आत्मा : अपना ही शत्रु ३८१ सुन्दर जीवनरूपी बगीचा पाकर भी तूने इसे अपनी लापरवाही, अनवस्थितता, विषयों में भटकाव आदि के कारण उजाड़ दिया। बन्धुओ ! दूसरे माली की तरह अनवस्थित आत्मा भी अपने जीवन रूपी बाग का शत्रु-आत्मरिपु बन जाता है । जबकि अवस्थित आत्मा पहले माली की तरह अपनी आत्मा का मित्र और बन्धु बनता है। जो मनुष्य अवस्थित है, वह आत्मा के द्वारा आत्मा का उद्धार करता है, उसकी अधोगति-पतन-नहीं करता वह आत्मा का मित्र होता है, परन्तु जो व्यक्ति अनवस्थित है, वह आत्मा के द्वारा अपनी आत्मा का पतन करता है, वह आत्मा का शत्रु बन जाता है। अवस्थित और अनवस्थित आत्मा को पहिचान अवस्थित आत्मा अपने स्वभाव में स्थित रहता है। वह जानता है कि काम, क्रोध, मद, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, मोह, मत्सर आदि विकार आत्मा के स्वभाव नहीं हैं, किन्तु संस्कारवश आत्मा इन विभावों को अपना स्वभाव मान लेता है और अपने स्वभाव-ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि को छोड़कर इन्हीं में तल्लीन हो जाता है, तब इसे हम अनवस्थित कहते हैं। अनवस्थित आत्मा स्वभाव से च्युत हो जाता है । जब मनुष्य का मन बात्मा के निजी गुणों-ज्ञान, दर्शन एवं चारित्रजन्य अहिंसा, सत्य आदि में, तप में नहीं लगकर निराशा, क्षोभ, क्रोध, आवेश, चिन्ता, भय, शोक, ईर्ष्या, द्वेष आदि मनोविकारों में लग जाता है, जो कि मन के लिए अस्वाभाविक हैं, तब उसकी आत्मा अनवस्थित हो जाता है। ऐसी अनवस्थित आत्मा भयग्रस्त होकर अकाल मृत्यु का शिकार होती देखी गयी है। ऐसी स्थिति में या इन मनोविकारों में मन के रमण करने से शरीर की स्थिति दिनोंदिन खराब होती जाती है, फिर बहम, भय, शंका और आत्महीनता का शिकार होकर मनुष्य की अनवस्थित आत्मा अपने लिए स्वाभाविक धर्म-शुक्लध्यान को तिलांजलि देकर आर्तरौद्रध्यान में पड़ जाती है, जिससे भयंकर दुष्कर्म-बन्धन में पड़कर अनेक जन्मों तक भटकना पड़ता है, नाना गतियों और योनियों में। इस प्रकार आत्मा के लिए मनोविकारग्रस्त आत्मा शत्रु का काम कर देता है । __ अनवस्थित आत्मा अपनी शक्ति से अनभिज्ञ रहते हैं। आत्मा में अनन्त शक्ति है, यह बात तो वे महात्माओं के प्रवचनों से और शास्त्रों से सुनते-पढ़ते आये हैं, किन्तु जब कभी मनोविकाररूपी शत्रु उन पर हमला करते हैं, उन पर हावी होना चाहते हैं, तब वे अपनी शक्ति को भूल जाते हैं, वे अपनी शक्ति पर विश्वास ही नहीं कर पाते, अपनी शक्तियों को पहचान कर उनकी उज्ज्वल संभावनाओं पर उन्हें यकीन ही नहीं होता कि वे थोड़े से प्रयत्नों से जगाई जा सकती हैं । यह अज्ञान ही अनवस्थित आत्मा को मनुष्य की प्रगति को अवरुद्ध कर देता है। अपनी आत्म-शक्तियों पर दृढ़विश्वासपूर्वक स्थिर रहने का माद्दा खत्म हो जाता है, अनवस्थित आत्मा में। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy