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________________ अवस्थित आत्मा : अपना ही शत्रु ३७६ समय आपकी यह अवस्थिति नहीं रहेगी, या आप अपने कार्यों या अपनी प्रवृत्तियों में इस बात का ध्यान नहीं रखेंगे तो याद रखिए, आपकी आत्मा ही आपकी दुश्मन बन जायेगी । । चाहे आप कायोत्सर्ग की मुद्रा में हर समय न रहते या न रह सकते हों, परन्तु आपका ध्यान, आपकी वृत्ति या आपका स्वभाव अपनी आत्मा में या शुद्धात्मस्वरूप परमात्मा में लीन होना चाहिए। यह अवस्थित का लक्षण है। यदि आप अपने महत्वपूर्ण कार्य में तल्लीन, एकाग्र या ध्यानपूर्वक अवस्थित नहीं रहते हैं तो आपको उस कार्य में सफलता नहीं मिलेगी आप अपने लिए स्वयं ही बुरे हो जायेंगे । व्यग्र होना, तल्लीनता से हट जाना, निष्ठा टूट जाना, मनोयोगपूर्वक न जुटना, एकाग्रचित न होना, अस्थिर हो जाना, ये सब अनवस्थित के लक्षण हैं । आत्मा भी जब अपने स्वभाव में स्थित नहीं रहता, अपने आत्मध्यान से विचलित हो जाता है, आत्म-निष्ठा से हटकर इन्द्रिय-विषयों में उसकी निष्ठा हो जाती है, मन को परमात्मा में संलग्न करने के बजाय विषय-वासनाओं, कषायों, राग-द्वेषादि विकारों में संलग्न कर लेता है, प्रवृत्ति करते समय आत्मा में शान्ति ओर सन्तुलन नहीं रहता, आत्मा व्यग्रचित्त या अस्थिर हो जाता है, तब समझ लीजिए, वह अनवस्थित है और आपका शत्रु बन गया है । अवस्थित और अनवस्थित को समझने के लिए एक स्थूल उदाहरण लीजिए - दो राजा थे। दोनों सम्बन्धी और पड़ोसी थे । उन्होंने अपने - अपने नगर में अपना-अपना बगीचा लगवाने का विचार किया। दोनों ने अपने-अपने बगीचे के लिए एक-एक माली नियुक्त कर दिया। दोनों मालियों ने दोनों बगीचे एक साथ एक ही समय में लगाए । एक माली को सौंपा हुआ बगीचा कुछ ही समय में पल्लवित, पुष्पित और विकसित हो उठा । सारे ही बगीचे ने इधर से उधर तक समान रूप से हरा-भरा, लहराता हुआ अपनी सुन्दरता और सुगन्धि से वातावरण को ओतप्रोत कर दिया । जो भी अपना-पराया, शत्रु-मित्र, आने-जाने वाला पथिक उस बगीचे के पास से निकलता, उसका हृदय प्रसन्न हो उठता, मन तृप्त हो जाता, आँखें सन्तुष्ट हो जातीं, नासिका सुवासित हो उठती, उसके मुँह से बरबस निकल पड़ता - 'अहा ! कितनी सुरम्य वाटिका है ! कितना नयनाभिराम दृश्य है ! कितना मनोमोहक बाग है ! इसका माली बड़ा कुशल मालूम होता है । माली अपनी सफलता को देख-सुनकर आत्मा में अनिर्वचनीय आनन्द और सन्तोष की अनुभूति करता है, चूंकि माली ने बगीचे में मनोयोग से, दत्तचित्त होकर स्वस्थ और सन्तुलित होकर कार्य किया था, उसने प्रत्येक पौधे को आत्मीय समझकर उसकी सेवा तल्लीन होकर की थी। इसी अवस्थितता के कारण माली अपने कार्य से तृप्त और सन्तुष्ट हुआ । राजा भी इस बगीचे को देखकर प्रसन्न हुआ । अब दूसरे माली का हाल सुनिये। उसने बगीचे की सार-संभाल नहीं की । न तो उसने क्यारियाँ ठीक कीं, न पौधों की काट-छांट ही की । राजा ने अपने बगीचे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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