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________________ ३७८ आनन्द प्रवचन : भाग १० 'रजोगुण से समुत्पन्न यह काम-यह क्रोध ही है, जो बहुभोजी है, महापापी है, इसे तुम इस विषय में शत्रु समझो।' यह समाधान व्यावहारिक है, जैसे जैनदर्शन कहता है-राग, द्वेष, विषयकषाय या तज्जनित कर्म, ये ही शत्रु हैं, आत्मा के; जो जन्ममरण रूप संसार में परिभ्रमण कराते हैं । परन्तु निश्चय दृष्टि से यह समाधान उचित नहीं है, क्योंकि राग-द्वेष या कषाय अथवा कर्म अपने आप में जड़ हैं, वे स्वयं आत्मा को पापकर्म में प्रेरित नहीं कर सकते । आत्मा पापकर्म या शुभकर्म में या धर्माचरण में स्वयं ही प्रेरित होता है, तभी तो वह स्वयं का शत्रु भी बन जाता है और मित्र भी। वह शत्रु कब और कैसे बन जाता है ? इसी प्रश्न का समाधान महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में किया है ___'अप्पा अरी हो अणवट्टियस्स' जब आत्मा अनवस्थित होता है, तब वह अपना शत्रु बनता है। तात्पर्य यह है कि जब आत्मा अपने स्वभाव में स्थित नहीं रहता, अपने घर को छोड़कर पर-घर में चला जाता है, आत्मभावों को भूलकर परभावों में रमण करने लगता है, तब वह अपने लिए ही दुःख के बीज बोने वाला शत्रु बन जाता है। आत्मा कब अवस्थित, कब अनवस्थित ? अवस्थित और अनवस्थित ये दो परस्पर विरोधी शब्द हैं। दोनों के कार्य भी एक दूसरे के विपरीत हैं। इसलिए 'अवस्थित' को समझ लेने पर 'अनवस्थित' को समझना आसान होगा । अवस्थित के इस सन्दर्भ में कई अर्थ होते हैं (१) अपने स्वभाव में स्थित, (२) अपने आत्मध्यान में स्थित, (३) एकमात्र आत्मनिष्ठ, (४) प्रत्येक प्रवृत्ति करते समय मन परमात्मा में संलग्न करना, (५) किसी भी सत्कार्य में मनोयोगपूर्वक जुट जाना, (६) शान्ति और सन्तुलन के साथ काम करना, (७) एकाग्रचित्त होना, स्थिर होना। आवश्यकसूत्र में कायोत्सर्ग-पाठ के अन्त में चार शब्द आते हैं-'ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि।' इनका तात्पर्य है-"अपने आत्मध्यान में स्थित होकर, इन्द्रियों और मन से मौन होकर और आत्मा में एकाग्र होकर अपने आपका (विषय-कषायादि सावद्य योगों का) व्युत्सर्ग करता हूं।" ____ आप कहेंगे यह तो कायोत्सर्ग की स्थिति है, क्या यह स्थिति हर समय रह सकती है ? मैं मानता हूँ, कायोत्सर्गमुद्रा की स्थिति या कायोत्सर्ग की प्रक्रिया में अवस्थिति हर समय नहीं रह सकती, परन्तु गौतमकुलककार तो यही कहते हैं कि जिस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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