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________________ पतिव्रता लज्जायुक्त सोहती ३५१ निष्कर्ष यह है कि जैसे योगसाधना के प्राथमिक चरण गुरु को आत्मसमर्पण करके शिष्य भगवत्तरायणता का अभ्यास करता है, जब उसमें निष्ठा सुदृढ़ हो जाती है, तब उसी के विकसित रूप - परमात्मा में आत्मा का लय कर देने'अप्पाणं वोसिरामि' कर देने का निमित्त बन जाता है, वैसे ही पतिव्रत धर्मसाधना में पति को देव का रूप मानकर उसके माध्यम से आत्मसमर्पण - आत्मलय- आत्मव्युत्सर्जन का अभ्यास करके आगे बढ़ा जा सकता है । इसलिए इसे गृहस्थ जीवन में योगसाधना का एक पूर्व रूप कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं । राजस्थान की महान भक्ता सन्नारी मीरा ने तो श्रीकृष्ण को ही अपना आध्यात्मिक स्वामी मानकर अपना संपूर्ण आत्मसमर्पण कर दिया था । पतिव्रता का आदर्श : पति के दोष न देखना, न सुनना इसी विचार से भारतीय नारियाँ पतिव्रतधर्म को कल्याण की, पुण्य की भावना मानकर उसे अपनाती रही हैं। पति की दुर्बलताओं और त्रुटियों की ओर उसने उपेक्षा ही की है । अच्छी भावनाओं की उत्कृष्टता तभी बनी रह सकती है, जब साधक-साधिका अपने इष्ट के दोष, दुर्गुण एवं दुर्बलताओं की उपेक्षा करता हुआ अपने कर्तव्य एवं सद्भाव में जरा भी कमी न आने दे । पतिव्रता इसी भव्य मार्ग का अनुसरण करती है । इसीलिए समर्पण योगयुक्ता पतिव्रता का आदर्श इन शब्दों में बताया गया है पतिप्रिया, पतिप्राणा, पतिप्रियहितेरता । यस्य स्यादीदृशी भार्या, धन्यः स पुरुषो भुवि ॥ हित में जो रत रहती है, जिसके घर में " पति ही जिसे प्रिय है, पति के लिए जो प्राणार्पण करती है, पति के प्रिय ऐसी पत्नी हो, वह पुरुष संसार में धन्य है ।" एक नववधू का पति परदेश गया हुआ था । घर आई हुई ननद अपने भाई के कुछ दोष अपनी भाभी के सामने निकालने लगी । नववधू सबके साथ हिलमिलकर रहती और प्रेम से बात करती थी; परन्तु अपने पति के दोष प्रगट करती हुई ननद से बोली - " आप अपने भाई की निन्दा मेरे सामने न किया करें, मैं उनके दोष बिलकुल नहीं सुनना चाहती, क्योंकि कैसे भी हों, मेरे लिए तो वे पूज्य हैं ।" इससे ननद को बुरा लगा । वह बोली - " मैं भाई के दुर्गुण कहूँ, इसमें तुम्हें क्या ? हम भाई-बहन वर्षों तक साथ-साथ रहे हैं, बड़े हुए हैं, एक माता-पिता के बालक हैं; इसलिए हम एक-दूसरे के विषय में कुछ भी कहें तुम प्रतिबन्ध लगाने वाली कौन ? तुम तो कल - परसों घर में आई और हुक्म चलाने वाली मालकिन भी बन गयीं ।" इस पर बहू ने नम्रतापूर्वक कहा - "बहन ! इसमें आपके कोई बात नहीं । आपको तो यहाँ अपने भाई के पास थोड़े ही दिन मुझे तो यहीं रहकर आपके भाई के साथ सारी जिन्दगी बितानी है । Jain Education International For Personal & Private Use Only नाराज होने की रहना है, मगर इसलिए उनके www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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