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________________ ३५० आनन्द प्रवचन : भाग १० पतिव्रत धर्म : एक समर्पण योग साधना जैसे भगवान की भक्ति करने वाला भक्त उनके प्रति अपना समर्पण कर देता है, तो वह अपने 'अहं' को समाप्त कर देता है, परमात्मा का स्नेह, साहचर्य एवं सान्निध्य प्राप्त करने के लिए । अपनी सारी कामनाओं, वासनाओं, मन-वचन-काया की सावद्य वृत्ति प्रवृत्तियों को 'अप्पाण्णं बोसिराम' कहकर आत्म-व्युत्सर्ग कर देता है, अपना सर्वस्व प्रभु के चरणों में सौंपकर वह केवल कर्तव्य और दायित्व के पालन में सुखानुभव करता है । वैष्णव भक्ति की भाषा में वहूँ तो, भक्त अपनी स्वतन्त्र इच्छाओं का परित्याग करके भगवान की इच्छा को ही अपनी इच्छा बना लेता है । इस प्रकार द्वैत को मिटाने और अद्वैत की स्थिति प्राप्त करने का साधन बन जाता है । तृष्णा, अहंता, कामना, स्वार्थ, लोभ, मोह, मान और कपट की परिसमाप्ति आत्म-समर्पण या जैन परिभाषा में आत्मव्युत्सर्जन के साथ ही हो जाती है और भक्त को वह उच्च मनोभूमिका सहज ही प्राप्त हो जाती है । भगवद्गीता में आत्मसमर्पण योग को साधना - पथ का मुकुटमणि कहा है। योगी अरविंद तथा अन्य अनेक तत्त्वज्ञानियों ने इसी माध्यम से आत्मा का उच्च विकास सम्पादन किया है । महाव्रतों, अणुव्रतों की या योग की साधना के प्रथम चरण में, जबकि देवाधिदेव वीतराग प्रभु प्रत्यक्ष विद्यमान नहीं होते तो साधक गुरु पर अपनी भावनाएँ आरोपित करके उन्हें भगवान् (देव) के रूप में मानता - पूजता एवं उपासना करता है, ' तो उसे देवाधिदेव (भगवान् की ) उपासना का लाभ बहुत कुछ अंशों में प्राप्त हो जाता है । इसी प्रकार पतिव्रता नारियाँ अपने पति को देव ( या वैष्णव दृष्टि से भगवान्) मानकर इसी आत्मसमर्पण की भावना का विस्तार करती है तो गुरु या देव की उपासना के से सत्परिणाम उसके जीवन में उतरते हैं । इस प्रकार पतिदेव के प्रति जब वे उसी श्रद्धा-विश्वास का आरोपण करके उस आत्मसमर्पण की साधना करती हैं तो वह योग-साधना से कम नहीं होती । उस पवित्र भावना की प्रतिध्वनि भी प्रायः उसी रूप में टकराकर वापिस लोटती है । आत्मिक सुख, सन्तोष, शान्ति और आत्मतृप्ति की प्राप्ति उसे शीघ्र ही होती है, भगवद्भक्ति का सा अनुग्रह भी, पतिदेव की भक्ति से प्रायः प्राप्त हो जाता है । पतिव्रत धर्म के पालन के पीछे विशेषत: यही प्रयोजन प्रतीत होता है । इसी धर्म के पालन की प्रतिक्रिया स्वरूप परिवार में पारस्परिक प्रेम, आनन्द, सुख, सन्तोष, त्याग भावना, बालक निर्माण एवं समाज की सुव्यवस्था का वातावरण बनता है । ये ही सद्गति के आधार हैं, इसी से समाज में चरित्रनिष्ठा बढ़ती है । १ देखिये गुरुवन्दन के पाठ में – 'कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं पज्जुवासामि हे गुरुदेव ! आप कल्याणरूप, मंगलरूप हो, आप देवरूप हो, ज्ञानरूप हो, या चैत्यरूप हो, मैं आपकी पर्युपासना करता हूँ । - सं० Jain Education International For Personal & Private Use Only ... www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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