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________________ राजमन्त्री बुद्धिमान सोहता, ३३५ लिए शासन की सुस्थिरता के लिए योग्य नहीं माना जाता। आखिर मन्त्री पर ही तो शासन का सारा दारोमदार है। वह बुद्धिमान तो हो लेकिन उसकी बुद्धि अपने स्वार्थ को सिद्ध करने में रत हो, अपनी पद-प्रतिष्ठा या अपनी कुर्सी मजबूत करने में ही लगी रहती हो, जनता का कोई मला न सोचती हो, शासन को न्यायनिष्ठ, कल्याणकारक एवं प्रजावत्सल न बना सकती हो तो किस काम की ? __ इसलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि मन्त्री की शोभा स्थिर एवं सात्विक बुद्धि से सम्पन्न होने में है । स्थिरप्रज्ञा के साथ-साथ अन्य गुणों का समावेश तो अपने आप हो ही जाएगा। क्योंकि स्थितप्रज्ञ मन्त्री परमात्मा पर अटल श्रद्धालु, धर्मनिष्ठ, न्यायनीतिपरायण, सर्वहितचिन्तक, इन्द्रिय-संयमी, निर्व्यसनी, मूढ़स्वार्थ से रहित, परमार्थी, समभावी, शासनहितैषी आदि गुणों से सम्पन्न होगा ही । ये गुण हुए बिना उसकी बुद्धि सुस्थिर और सात्त्विक रह ही नहीं सकती।। प्राचीन नीतिशास्त्र में स्थिर बुद्धि मन्त्री के ये सद्गुण आवश्यक बताये हैं मंत्रतंत्रापित - प्रीतिर्देशकालोचितस्थितिः । यश्च राजि भवेद् भक्तः, सोऽमात्यः पृथिवीपतेः॥ "राजा का सच्चा मन्त्री वह है, जो मन्त्र और तन्त्र में अपनी शक्ति और प्रीति लगाये हुए हो, देश और काल को देखकर यथोचित कदम उठाता हो, और राजा के प्रति भक्त हो।" शास्त्रज्ञः कपटानुसारकुशलो वाग्मी न तु कोपनस्तुल्यो मित्र-पर-स्वकेनु चरितं दृष्ट्वैव दत्तोत्तरः । शिष्टान् पालयिता, शठान् व्ययिता, धर्मेऽतिलोभान्वितो, कार्यार्थी परतत्वबबहृदयो, राज्ञश्च कोपापहः॥ "जो शास्त्रज्ञ हो, स्वयं कपट न करता हो, किन्तु कपटी के कपट को परखने में कुशल हो, अच्छा वक्ता हो, दूसरों को अपनी बात भली-भांति समझा सकता हो, क्रोधी न हो, अपने मित्रों, स्वजनों, स्नेहियों तथा अन्य जनों के प्रति समभावी हो, व्यक्ति का चरित्र (व्यवहार) देखकर उत्तर दे सकता हो, शिष्ट पुरुषों का रक्षण और दुष्टों का दमन करने में कुशल हो, लोभ हो तो केवल धर्माचरण में हो, कार्यार्थी हो, फिजूल बातें करने वाला न हो, और जिसका हृदय परमतत्त्व से सम्बद्ध हो, तथा शासक के क्रोध को शान्त करने वाला हो, वही मन्त्री श्रेष्ठ माना जाता है।" स्वदेशजं कुलाचारं विशुद्धमथवा शुचिम्, मंत्रज्ञमव्यसनिनं, व्यभिचारविजितम् । अधीतव्यवहारार्थ मौलं, ख्यातं विपश्चितम्, अर्थस्योत्पादकं चैव, विदध्यानमन्त्रिणं नृपः॥ "राजा उसी को मन्त्री पद पर नियुक्त करे, जो अपने देश का हो, कुलाचारपालक हो, पवित्र हो, शुद्ध हृदय हो, मन्त्रविज्ञ हो, निर्व्यसनी हो, व्यभिचार से दूर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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