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आनन्द प्रवचन : भाग १०
सन्धि वाला हो, दूसरा कपट-सन्धि वाला, तो दोनों में कैसे मेल हो सकता है। अतः सत्य-सन्धि वाले हमारे राजा नन्द के साथ माया-सन्धि वाले तुम लोगों की सन्धि नहीं हो सकती।
वहीं एक अहीरन के सिर पर दही की हंडिया देख कल्पक ने हाथ के इशारे से बताया कि इस डण्डे से यह हंडिया फोड़ी जा सकती है। कल्पक का आशय था कि तुम्हारी सेना इस इंडिया के समान है, उसे मैं बुद्धिरूपी डण्डे से फोड़कर छिन्न-भिन्न कर सकता हूँ, पर इस आशय को भी वे न समझ सके ।
फिर अपनी नौका को शत्रुओं के बीच में डालकर तीन प्रदक्षिणा दी । उसका आशय था कि मेरी नौका जैसे तुम्हारी नौका पर हावी हो गई। वैसे ही मेरा तेज तुम पर हावी हो जायेगा। परन्तु वे सन्धि-विग्रहकर्ता इन तीनों इशारों के आशय को न समझ सके । फलतः अपना सा मुंह लेकर अपनी सेना की छावनी में पहुँच गये। कल्पक भी अपने स्थान पर लौट आया।
इधर सन्धि-विग्रहकर्ताओं से उनके सामन्त राजाओं ने पूछा कि क्या हुआ ? तो उन्होंने कहा-'कल्पक तो असम्बद्ध बकबास करता है।" ।
"सन्धि की आखिर कोई बात हुई या नहीं ?" यों जोर देकर पूछने पर उन्होंने लज्जित होकर कहा-“सन्धि के विषय में हम कल्पक का आशय नहीं समझ सके।"
यह सुनकर शत्रुराजाओं ने सोचा-कल्पक ने इन सबको धन का लोभ देकर फोड़ लिया दिखता है, अन्यथा ये सच्ची बात क्यों न कहते। कहीं अन्दर का भेद बताकर हमें मरवा न डालें। अतः हमें अब यहाँ रहना उचित नहीं है। यों परस्पर परामर्श करके सभी सामन्त अपनी-अपनी सेना सहित वहाँ से भागने लगे ।
कल्पक ने नन्द राजा से कहा-"यह अच्छा मौका है अभी इन पर चढ़ाई करके इनसे मूल्यवान पदार्थ ले लो।"
नन्द राजा ने चढ़ाई करके उन सब राजाओं के हाथी, घोड़े, रथ एवं रत्न आदि ले लिये । नन्द राजा का राज्य अब कल्पक महामन्त्री के अवलम्बन के कारण सुस्थिर, समृद्ध, सशक्त एवं सुदृढ़ हो गया।
निष्कर्ष यह है कि सत्तामदान्ध नन्द राजा को अगर कल्पक महामन्त्री का अवलम्बन न होता तो उसका राज्य कभी का शत्रुराजाओं के हाथ में चला जाता, तथा शासन भी सुस्थिर, समृद्ध और सुदृढ़ न होता। अतः मन्त्री ही राजा या राज्य के स्खलन या पतन के समय आलम्बन रूप होता है । मन्त्री कैसा हो, कैसा नहीं ?
यों तो मन्त्री की शोभा उसकी बुद्धिमत्ता में है ; परन्तु कोरी बुद्धिमानी हो, और वफादारी, प्रजाहितषिता, धर्मनिष्ठा आदि अन्य गुण न हों तो वह मन्त्री राजा के
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