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________________ दुष्टाधिप होते दण्डपरायण-१ ११ एस० डी० ओ० के पास पहुँच गईं, जो दौरे से अभी लौटकर आए ही थे। फुआ ने उनसे अपना खेत जोतने की शिकायत की। मजिस्ट्रेट ने तुरन्त आदेश दिया कि खेत उस किसान के कब्जे से निकालकर फुआ को दे दिया जाये। फुआ की विजय हो गई और उन्होंने जेल में राजेन्द्र बाबू को इस बात से सूचित भी कर दिया। पर सत्यनिष्ठ बाबू को यह मालूम होते ही उन्होंने मजिस्ट्रेट को खत लिखकर भेजा कि वह खेत उसी व्यक्ति को वापिस कर दिया जाय, खेत उसी का है। ऐसी सत्यता और उदारता होती है, बड़े आदमियों में ! वे ही सच्चे माने में अधिप होते हैं। वे छोटे से छोटे कार्य के लिए अपने सेवकों को आदेश न देकर स्वयं कर लेते हैं । सेवा का कार्य चाहे छोटा ही हो, वे कतराते नहीं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में यह प्रसिद्ध है कि वे आश्रम में टट्टियाँ साफ कर लेते थे, गेहूँ आदि स्वयं बीनकर साफ कर लेते थे, अपने कर्तव्य में कभी शिथिलता नहीं आने देते थे। वे सच्चे नेता थे। वास्तव में मनुष्य का बड़प्पन तीन गुणों से प्रगट होता है(१) दूसरों को थोड़ा भरोसा देकर अधिक काम करने से, (२) काम कर देने के बाद अहंकार न करने से, (३) दूसरे को सफल होते देख अफसोस न करने से । अन्तकृद्दशांग सूत्र में कर्मयोगी त्रिखण्डाधिप श्रीकृष्ण जी के जीवन की एक प्रेरणाप्रद घटना अंकित है। एक बार वे अपने नवदीक्षित लघुभ्राता गजसुकुमार मुनि और तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमि के दर्शनार्थ अपने हाथी पर आरूढ़ होकर जा रहे थे। नगरी के मध्य में उन्होंने एक दयनीय दृश्य देखा-एक जराजीर्ण बूढ़ा लड़खड़ाते कदमों एवं काँपते हाथों से ईंटों के एक ढेर में से बड़ी मुश्किल से एक-एक ईंट उठाकर अन्दर रख रहा था। श्रीकृष्ण से यह दृश्य देखा न गया, वे अनुकम्पा से द्रवित हो उठे। उन्होंने हाथी पर बैठे-बैठे हो अपने हाथ से कुछ ईंटें उठाकर रखीं। उन्हें अपने हाथ से ईंटें उठाते देख साथ के सामन्त और दरबारी तुरन्त ईंटें ढोने में लग गये। बात की बात में सारा ईंटों का ढेर बूढ़े द्वारा निर्दिष्ट स्थल पर जमा दिया गया। श्रीकृष्ण जी त्रिखण्डाधिप थे, महान नेता और शासक थे, वे आदेश देकर भी यह कार्य करवा सकते थे, लेकिन उन्होंने स्वयं अपने हाथों से बूढ़े की ईंटें उठायीं, यही उनकी परोपकारिता का सच्चा प्रमाण था। ऐसे अधिप को ही सच्चा जननेता कहा जा सकता है। जो हर काम में परमुखापेक्षी हो, आलसी हो, अकर्मण्य हो, नौकरों के भरोसे ही रहता हो, वह सच्चा जननेता नहीं हो सकता, शिष्ट अधिप के योग्य भी नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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