________________
दीक्षाधारी अकिंचन सोहता ३१५ लिए रहती है । ये तत्त्व उसकी दृष्टि से कभी ओझल नहीं होते। यों तो सन्तोष की चाह सबको होती है, परन्तु साधारण बुद्धि के लोग आवश्यकताओं, इच्छाओं या महत्त्वाकांक्षाओं की तात्कालिक पूर्ति को ही सन्तोष मान लेते हैं । परन्तु क्षणिक तृप्ति में सन्तोष की अभिव्यक्ति नहीं होती । सन्तोष आकिंचन्य की एक विशाल भावना है, जो कुछ न होने पर भी अनन्त भण्डार के स्वामित्व का आनन्द अनुभव कराती है । सन्तोष अकिंचन भिक्षु के लिए ऐसा प्रकाश है, जो उसे आत्मा के अनन्त खजाने को जानने और अभिव्यक्त करने के लिए प्रेरित करता है, आत्मा की विशाल व्यापक सत्ता और अनन्त शक्ति की महत्ता के द्वार खोल देता है । फिर उस मानव को सांसारिक और तात्कालिक सुख-भोग व प्रेय के साधन नहीं भाते, फिर तो वह अपने अन्दर ही असीम सुख और तृप्ति के आनन्द की अनुभूति करता है । अतः सन्तोष अकिंचनता के लिए प्रथम आवश्यक गुण है ।
धूलनशाह नामक एक फकीर था, वह आत्मसन्तुष्ट था, अपने आप में तृप्त और मस्त था । वह धूल पर मृगचर्म बिछाकर मस्ती से बैठा रहता था। एक दिन बादशाह की सवारी आ रही थी। चोबदारों ने उनसे कहा-"सांई बाबा ! बादशाह की सवारी आ रही है, आप बैठे हो जाइए।"
फकीर बोला-"बादशाह है, तो मुझे उससे क्या लेना है। फकीर स्वयं शाहंशाह होता है । बादशाह इस रास्ते से खुशी से जाएँ, हम इन्कार नहीं करते।"
सिपाहियों ने कहा- "मनुष्य तो इस संकड़े रास्ते से एक बाजू होकर जा सकता है लेकिन हाथी, घोड़े आदि जानवर हैं, वे कहीं भड़क गए तो आपको नुकसान पहुंचा सकते हैं । इसलिए आप कुछ दूर खिसक जाइए।"
धूलनशाह ने निःस्पृहभाव से उत्तर दिया-"हम अभी यहाँ से उठ नहीं सकते, क्योंकि हमारे नित्यकर्म अभी बाकी हैं। अगर तुम्हारे बादशाह को उतावल हो तो रास्ते के पास बहुत जगह पड़ी है, उससे या दूसरे रास्ते से चले जाएँ।"
जब यह बात बादशाह के कानों में पहुँची तो सोचा-कोई विलक्षण मस्त फकीर है, उसे तंग करना ठीक नहीं। बादशाह स्वयं फकीर के पास आया और अदब से नमस्कार करके बैठा। बात चलते-चलते बादशाह ने पूछा- “सांई बाबा ! आप अपने को शाहंशाह कहते हैं, लेकिन आपके पास न तो फौज दिखाई देती है, न धन का खजाना, न मुल्क और न हाथी-घोड़े हैं। आपके पास शाही ठाठ-बाट कहाँ है ?"
धूलनशाह फकीर ने बादशाह को अकिंचन की तात्त्विक दृष्टि से समझाया"तूने फौज तो दुश्मन का सफाया करने के लिए रखी है, मेरा कोई दुश्मन ही नहीं है, फिर मैं क्यों फौज रखू ? क्यों व्यर्थ का खर्च रखू ? तेरा खजाना तो सेवकों, सैनिकों आदि को वेतन चुकाने के लिए है। मुझे किसी का वेतन चुकाना नहीं पड़ता। फिर मैं खजाना रखने के प्रपंच में क्यों पडूं ? तेरा मुल्क तो तेरे राज्य की सीमा तक होगा,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org