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________________ ३१४ आनन्द प्रवचन : भाग १० उसे न मोहजन्य दुःख होता है, और न उसे उन पदार्थों को अपना बनाने की इच्छा होती है । दूसरी ओर किसी निर्धन के मकान में उसके भावभक्तिभरे आग्रह से भिक्षा के लिए जाने पर उसके यहाँ रूखी-सूखी रोटी मिलने पर, अथवा उसके यहाँ छोटा-सा मकान उसकी गृहिणी के बहुत ही खुरदरे मोटे कपड़ों को देखकर, या घर के पास बहती हुई गन्दी नाली की बदबू आती है, उसे नाक में पड़ती हुई जानकर या उस घर के पड़ौस में लड़ाई-झगड़े की कर्णकटु कर्कश आवाज को सुनकर उसके मन में उद्वेग, अरुचि या घृणा नहीं पैदा होती । मतलब यह है कि अकिंचन हर हाल में मस्त रहता है। न तो इष्ट पदार्थों के इन्द्रियगोचर होने में उसे सुख का आभास होता है। और न ही अनिष्ट पदार्थों का सम्पर्क होने पर दुःख का । अकिंचन की सबसे महान तत्त्वदृष्टि यह होती है कि वह अपने को कुछ भी हूँ, ऐसा नहीं मानता। यह 'कुछ न होने' का भाव (Nobodiness) ही अकिंचनता है । 'मैं कुछ भी नहीं हूँ' यह भाव भी सहज रूप में होना चाहिए, अन्यथा वह कहीं विधायक रूप ले लेगा तो अहंकार हो जाएगा, फिर वह अपने आपको 'अहमिन्द्र' मानने लगेगा, किसी के सामने नम्र न रह सकेगा, न विनयपूर्वक गुरु की आज्ञा मानेगा, न ही कोई कार्य करेगा । अकिंचनता ऐसी हो कि जिसमें व्यक्ति के अन्दर यह भाव ही न रह जाए कि 'मैं क्या हूँ ।' वह बाहर से चाहे कपड़े पहने हो, परन्तु उसके हृदय में नग्न भाव हो । वह सदा यही समझ ले, यही बात हृदय में जमा ले कि मैं नंगा आया हूँ, नंगा ही जाऊँगा, यहाँ तक कि शरीर और चमड़ी का आवरण भी मेरे साथ नहीं जाएगा । कहते हैं — सिकन्दर जब मृत्यु शय्या पर पड़ा था, तब उसके हृदय में सांसारिक पदार्थों से विरक्ति-सी हो गई थी । उसने अपने लड़कों से कहा था कि मेरे शव पर सवा लाख रुपयों की चादर ओढ़ाना, परन्तु पुत्रों ने जब स्वार्थवश सवासी रुपयों की चादर ओढ़ाई तो सिकन्दर का शव सहसा बैठा हो गया और उसने यह ढिंढोरा पिटवा दिया- घड़ी हुई घडियाल में हुआ पराया माल । नंगा आना, नंगा जाना, रक्खो इतना ख्याल ॥ जो व्यक्ति संन्यासी बनकर मन में असन्तुष्ट रहता है, आत्मतृप्त एवं आत्मसन्तुष्ट नहीं रहता, उसके जीवन में पद-पद पर विडम्बनाएँ और चिन्ताएँ सवार हो जाती हैं । लाभ और अलाभ में सम और सन्तुष्ट नहीं रहता, वह अकिंचनता से भ्रष्ट हो जाता है, उसे पद-पद पर दुःखों का - मानसिक दुःखों का सामना करना पड़ता है । अकिंचनता के लिए आवश्यक गुण अकिंचन की पारदर्शी तात्त्विक दृष्टि जीवन के हर मोड़ पर सन्तोष, निस्पूहता, आत्मतृप्ति, अममत्व, मस्ती और परिस्थिति के साथ सामंजस्य आदि तत्त्वों को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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