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आनन्द प्रवचन : भाग १०
नियुक्तिकार भी एक गाथा के द्वारा गुरु के प्रति सुविनीत शिष्य को गुरु से अनायास ही ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, इस सम्बन्ध में कहते हैं
विणओणएहि पंजलिउहिँ छंदमणुयत्तमाहिं ।
आराहिओ गुरुजणो, सुयं बहुविहं लहुं देइ ॥ "वन्दना, बहुमान, श्रद्धाभक्ति आदि से जो नतमस्तक रहते हैं, किसी विषय में प्रश्न पूछते समय भी करबद्ध रहते हैं, तथा गुरु के अभिप्राय को इंगित, आकार आदि से जानकर उस पर श्रद्धा तथा उसका समर्थन करते हैं, और तदनुसार आचरण करते हैं, उन शिष्यों द्वारा आराधित गुरुजन अनेक प्रकार के शास्त्रों, सिद्धान्तों एवं तत्वों का ज्ञान हृदय से शीघ्र प्रदान करते हैं।"
कई बार गुरुदेव शिष्य के इन विनयादि गुणों की कठोर परीक्षा करते हैं। उस कठोर परीक्षा में जब वह उत्तीर्ण हो जाता है, तब गुरु के हृदय से शिष्य के प्रति आशीर्वाद उमड़ पड़ते हैं । उसे गुरु के द्वारा पढ़ाये बिना ही स्वतः आत्मज्ञान या तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जाता है।
कुमारजीव प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान कुमारायण के पुत्र थे। कुमारजीव के जन्म के कुछ अर्से बाद ही उनके पिता का देहान्त हो गया था। पति का प्रचार कार्य पूर्ण करने हेतु उनकी माता 'देवी' बौद्ध भिक्षुणी बन गई । बौद्ध भिक्षुणी बनने के बाद भी कुमारजीव की बुद्धिमती माता यह न भूली कि उसके सस्मुख कुमारजीव है, जिसे हर प्रकार से योग्य बनाकर समाज व संसार की सेवा में समर्पित करना है । फलतः कुमारजीव की शिक्षा-दीक्षा तथा जीवन-निर्माण के लिए वह उन्हें कश्मीर ले गई, जो उस समय विद्या का बहुत बड़ा केन्द्र माना जाता था।
वहाँ कुमारजीव की माता ने उन्हें पं० बन्धुदत्त नामक एक महान् चरित्रवान विद्वान की संरक्षता में छोड़ दिया। बन्धुदत्त जितने बड़े विद्वान थे, उतने ही वे शिष्य बनाने में कृपण थे । उन्होंने अपने जीवन में बहुत ही कम शिष्य बनाये किन्तु जो भी बनाये, उन्हें चोटी के विद्वान बना दिया । इसलिए वे शिष्य बनने के इच्छुक व्यक्ति की कड़ी परीक्षा लेकर पहले परख लिया करते थे कि इसमें बोए हुए विद्या के बीज अंकुरित भी होंगे या नहीं ? निरर्थक, अविनीत एवं उद्दण्ड शिष्यों के साथ सिर खपाने के लिए फिजूल समय उनके पास न था।
निदान, अपने नियमानुसार बालक कुमारजीव को भी उन्होंने नहीं छोड़ा। उसके चरित्र, विनयादि गुण, स्वभाव, कर्म, संस्कार में जमे बीजांकुरों को उन्होंने कठोरता से जाँचा-परखा। जब बालक गुरु की कसौटी पर खरा उतरा तभी उसे अपना शिष्य बनाया। फिर उसकी शिक्षा-दीक्षा में पूरी तत्परता दिखाने में कोई कसर न छोड़ी।
कठोर गुरु जब शिष्य की सुयोग्यताओं से प्रसन्न होता है तब शिष्य को पढ़ाता क्या, वास्तव में ज्ञानालोक के रूप में स्वयं उसकी आत्मा में बैठ जाता है ।
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