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आनन्द प्रवचन : भाग १०
महर्षि को भेंट कर दिया। महर्षि ने उस बच्चे को तो उसकी मां के पास पहुँचा दिया; परन्तु शिखिध्वज को इससे यह शिक्षा मिल गई कि लोभी मनुष्य समाज के लिए भी कितना घातक हो सकता है।
वहाँ से आगे बढ़कर अगले दिन दोनों एक विद्वान ब्राह्मण के यहाँ पहुँचे । महर्षि ने कहा- "यदि आप अपने सम्पूर्ण ग्रन्थ मुझे बेच दें, उनका स्वामी, रचयिता सब मुझे बना दें तो मैं आपके घर में प्राप्त सभी लोहे को सोने में बदल दंगा।" विद्वान् ने भी सोने के लोभ में स्वाभिमान को ताक में रखकर यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
इस प्रकार सांसारिक सुख के लिए मनुष्य अपने आदर्श और सिद्धान्त ही नहीं, शान और स्वाभिमान तक बेच सकता है। यह अनुभवयुक्त प्रत्यक्ष ज्ञान शिष्य को दिलाकर महर्षि वहाँ से चल पड़े और सन्ध्या होने से पूर्व अपने आश्रम में लौट आये।
सारे आश्रमवासी शिक्षार्थी एक-एक करके महर्षि के चरणों में शीश झुकाते चले जा रहे थे। शिखिध्वज ने देखा कि अनुशासन में कितनी शान्ति, सन्तोष और आनन्द का भाव झलक रहा है । आज उसे अपनी हीनता पर पश्चात्ताप हो रहा था। वह देख चुका था कि तृष्णाएँ मनुष्य से छल, चोरी, हत्या, व्यभिचार और न जाने कितने कुत्सित कर्म करा सकती है। मनुष्य का जीवन मनुष्यता से गिरकर पाशविकता का आचरण करने के लिए नहीं, अपितु अपने ध्येय को समझकर उसे प्राप्त करने के लिए मिला है। इसलिए धर्म बड़ा है, सांसारिकता नहीं, वैराग्य बड़ा है, आसक्ति नहीं।
इसलिए जब महर्षि ने बुलाकर कहा-“लो वत्स ! यह पारसमणि ! इसे ले जाओ और सांसारिक सुखों का जी भर कर उपयोग करो।" ।
तब उसने पारसमणि लौटाते हुए कहा- "गुरुदेव ! मुझे यथार्थ पारस (अनुभवसिद्ध तत्त्वज्ञान) मिल चुका है, अब मुझे इसकी जरूरत नहीं। यही दुःख रहा कि इस नकली पारस के लोभ में मेरी एक वर्ष की साधना व्यर्थ गई । अब आशीर्वाद दें कि इसी साधना का पुनः अभ्यास करूँ और अग्निदीक्षा की पात्रता प्राप्त करूँ।"
वास्तव में गुरुदेव उद्दालक ऋषि ने अपने लोभाविष्ट शिष्य की आँखें प्रत्यक्ष ज्ञान कराकर खोल दी थीं। इसीलिए 'गुरु' शब्द की व्युत्पत्ति व्याकरणशास्त्रियों ने की है
'गु' शब्दस्त्वन्धकारस्य, 'रु' शब्दस्तनिरोधकः ।
अन्धकारनिरोधत्वाद, गुरुरित्यभिधीयते ॥ ''गुरु शब्द में दो अक्षर हैं-'गु' और 'रु' । 'गु' अक्षर अन्धकार का वाचक है और 'रु' अक्षर निरोध का । शिष्य के अज्ञान-अन्धकार का निरोध करने के कारण वह 'गुरु' कहलाता है।"
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