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________________ शिष्य की शोभा : विनय में प्रवृत्ति २७१ जिस शिष्यों के हृदय में गुरु के प्रति श्रद्धा-भक्ति या विनय-बहुमानता होती है, वह गुरु के द्वारा दिये जाने वाले कठोर दण्ड एवं वचनों को अपने में रहे हुए दोषों, बुराइयों और दुर्वृत्तियों को निकालने और स्वयं को सुधारने का उपाय समझ कर उन्हें महान् उपकारी मानते हैं । वे समझते हैं कि जिस तरह कुंभार घड़ा बनाते समय जब तक वह कच्चा होता है, तब तक ऊपर से लकड़ी के डण्डे से थप-थप मारता है, लेकिन अन्दर वह हाथ भी रखता है, ताकि घड़ा फूट न जाए, उसी तरह गुरु अपने सुविनीत शिष्य को ऊपर से फटकारते हैं, दण्ड भी देते हैं, कठोर वचन भी कह देते हैं लेकिन उनके अन्तर् में शिष्य के प्रति लबालब प्यार होता है । यही बात सन्त कबीर कहते हैं गुरु कुम्हार, शिष्य कुम्म है, घड़-घड़ काढ़े खोट । अन्तर हाथ सहारा दे, बाहर बाहै चोट ॥ वे यह देखते रहते हैं, कि इसका कोई अंग-भंग या अहित न हो जाए । शिष्य की कमियों और त्रुटियों को दूर करने हेतु ही गुरु ऊपर से वचनादि द्वारा प्रहार भी करते हैं तो अन्दर से प्यार का हाथ भी होता है। पण्डितराज जगन्नाथ ने गुरु के लिए ठीक ही कहा है उपरि करवालधाराकाराः क्रूरा भुजंगमपुंगवात् । अन्तःसाक्षाद् द्राक्षादीक्षागुरुवो 'जयन्ति केऽपि जनाः॥ 'ऊपर से तलवार की धार के समान तीक्ष्ण आकृति वाले तथा महा-विषधर से भी बढ़कर क्रूर, किन्तु अन्दर से मानो मधुर द्राक्ष को भी प्रत्यक्ष माधुर्य-दीक्षा देने वाले कई गुरुजन संसार में विजयी होते हैं।' वास्तव में सच्चा गुरु बाहर से चाहे जितना कठोर हो, उसके अन्तर् में शिष्य के प्रति वात्सल्य की मधुर धारा बहती है। ___ ज्ञानपिपासु पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु ज्ञान प्राप्ति के लिए गुरु परिपूर्णानन्दजी से भारतीय विद्याओं का अध्ययन करने आये थे। उन दिनों की बात है-एक दिन वे जब अपने गुरु परिपूर्णानन्दजी के हाथों बुरी तरह पीटे गये तो एक हितैषी ने उन्हें कहा-"क्यों भैया ! आपको आपके गुरुदेव इतना मारते और कडुआ बोलते हैं, फिर भी आप उनकी सेवा इतनी लगन और तत्परता से करते हैं, जैसे वह आपके माता-पिता हों । इतनी श्रद्धा व्यक्त करने की अपेक्षा तो आप अपने घर चले गये होते और अंग्रेजी पढ़ ली होती तो वह किसी काम आती । कोई अच्छी नौकरी मिल जाती और अपनी इस छोटी-सी मनुष्य की जिन्दगी में मौज करते ।" उस तरुण विद्यार्थी ने गुरु के प्रति अनन्य श्रद्धा से पूर्ण उत्तर दिया-"हाँ, वे मुझे मारते हैं, तो प्यार भी तो बेहद करते हैं । आपका तात्पर्य है कि मैं अपने आपज्ञान को तिलांजलि देकर बौद्धिक पराधीनता स्वीकार करूं। आपकी सलाह और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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