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आनन्द प्रवचन : भाग १०
प्राप्त होती है। वह प्राप्त होती है या तो निसर्ग-प्रकृति की खुली पाठशाला से, या फिर सद्गुरुओं की कृपा से । यही बात तत्त्वार्थसूत्र में कही है
तनिसर्गादधिगमाद् वा।' "वह सम्यग्दर्शन-सच्ची दृष्टि, आध्यात्मिक ज्ञान निसर्ग से या अधिगमगुरु आदि के निमित्त से प्राप्त होता है।"
प्रकृति से जीवन-विद्या प्राप्त करने वाले बहुत बिरले हैं । अधिकांश व्यक्तियों को गुरु द्वारा ही वह प्राप्त होती है । बादल, झरने, नदी, समुद्र, पर्वत, सूर्य, चन्द्र आदि विश्व के विद्यालय की पुस्तकें हैं। सारी सृष्टि जीवन-विद्यानिष्ठ के लिए खुली हुई पुस्तक है। परन्तु वह भी प्रायः गुरु द्वारा दिव्य दृष्टि-ज्ञानचक्ष खोलने पर ही आती है।
गुरु शिष्य को ऐसी जीवन-विद्या उसके विनय, नम्रता, जिज्ञासा, श्रद्धाभक्ति, आदि से प्रेरित होकर दिल खोलकर देता है। गुरु के प्रति निष्कपट समर्पण का कईगुना फल शिष्य को मिलता है। गुरु का कठोर व्यवहार और विनीत शिष्य
कई बार ऐसा मालूम होता है कि गुरु शिष्य के प्रति अत्यन्त कठोर व्यवहार कर रहे हैं। गुरु के द्वारा किये जाते हुए कठोर व्यवहार को देखकर सुविनीत और समर्पित शिष्य उसे अपने लिए महान् हितकर समझता है, वह उन्हें अपना हितैषी और उपकारी समझता है, लेकिन जिसके हृदय में गुरु के प्रति श्रद्धा नहीं है, विनय-भक्ति नहीं है, समर्पण भावना नहीं है, वह सोचता है, कि गुरु मेरे पर अत्याचार कर रहे हैं, वे प्यार करने के बदले मुझे डाँट-डपट करते हैं, मेरे किये हुए कार्यों की नुक्ताचीनी करते हैं, मेरे सामने मेरी कभी प्रशंसा नहीं करते, उल्टे आलोचना ही करते हैं, इसलिए वे मेरे प्रति द्वष और दुर्भाव रखते हैं, वे मेरे शत्रु हैं। इसी विचार को उत्तराध्ययन सूत्र में मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है
जं मे बुद्धाणुसासंति सीएण फरसेण वा। मम लामोत्ति पेहाए, पयओ तं पडिसुणे । अणुसासणमोवायं दुक्कडस्स य चोयणं ।
हियं तं मण्णइ पण्णो, वेसं होइ असाहुणो॥ प्रबुद्ध गुरुदेव मुझ पर ठण्डे अथवा मन्द या कठोर अनुशासन का प्रयोग करते हैं, उसमें मेरा ही लाभ है, यह मानकर बुद्धिमान एवं विनीत शिष्य ध्यानपूर्वक उनकी बात सुने और उन्हें आश्वासन दे कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा या जैसा आप कहते हैं, वैसा ही होगा । गुरु द्वारा किये जाने वाले कठोर अनुशासन के प्रयोग और दुष्कृत (अकृत्य) के लिए की गई प्रेरणा (वाचिक भर्त्सना) को देखकर प्राज्ञ शिष्य गुरु को अपना हितैषी मानता है, जबकि असाधु (दुर्जन या मूढ़) शिष्य उन्हें द्वेषी समझता है।
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