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________________ चारित्र की शोभा : ज्ञान और सुध्यान–२ २५६ आदि से जोड़ा नहीं गया, पलस्तर भी नहीं किया गया, पहले ही केवल मिट्टी का ढेर या ईंटें जमाकर उस पर रंग-रोगन से पालिश कर दी जाय तो क्या वह दीवार शोभा देगी ? कभी नहीं । इसी प्रकार यहाँ चारित्ररूपी दीवार पर पहले सम्यक्ज्ञान रूपी ईंट-चूने आदि से जोड़ने व पलस्तर करने का कार्य नहीं होगा, और सिर्फ सुध्यान रूपी पॉलिश किया जाएगा तो वह भी सुशोभित नहीं होगी । इसीलिए सम्यग्ज्ञान पहले संसार के समस्त वस्तु तत्त्व का बोध करा देता है, फिर जिस तत्त्व को चारित्र के रूप में उपादेय समझकर अपनाया है, उसी एकमात्र तत्त्व के विषय ध्यान गहराई से चिन्तन करता है । तब जाकर चारित्र के रूप में सम्यक् आचरण होता है । इसलिए जब तक विस्तृत वस्तुतत्त्व का ज्ञान न हो तो एक तत्त्वविषयक चिन्तन कैसे होगा। कुएँ में पानी होता है तो हौज में आवश्यकताभर पानी निकाला जाता है और उससे कृषि भूमि की सिंचाई की जाती है । इससे आप अन्दाजा लगा सकते हैं कि सम्यग्ज्ञान की कितनी महत्ता और उपयोगिता है । मैं यहाँ ज्ञान के सम्बन्ध में विस्तार में न जाकर एक उदाहरण द्वारा इतना ही समझाऊँगा कि सम्यग्ज्ञान के अभाव में किस प्रकार चारित्रवान पुरुष जीवन को निरर्थक कर देते हैं ? पुष्यभूति आचार्य बहुश्रुत, ज्ञानी, ध्यानी एवं महागुणी थे । वे एक बार विचरण करते हुए सिन्धुवर्धन नगर पधारे । वहाँ के राजा मुंडविक को प्रतिबोध देकर श्रावकब्रती बनाया। आचार्य का एक बहुश्रुत शिष्य पुष्यमित्र था, पर उसके जीवन में ज्ञान के साथ सुध्यान का अभ्यास न होने से चारित्र में बहुत शिथिल था । वह सुखशील और आरामतलब हो गया था, इस कारण आचार्य से पृथक विचरण करता था । आचार्य के पास और जितने भी शिष्य थे, वे सबके सब अबहुश्रुत एवं ज्ञान और सुध्यान दोनों से रहित, केवल क्रियाकाण्डी थे । एक दिन पुष्यभूति आचार्य ने विचार किया— मैंने धर्मध्यान की बहुत साधना कर ली, अब तो शुक्लध्यान के अन्तगंत सूक्ष्मध्यान की साधना करनी है । वह एक प्रकार का निर्विचार ध्यान है, जिसमें चेतना है या नहीं, इसका कोई भान या अध्यास नहीं रहता । आचार्यश्री को इस महाध्यान के लिए एकान्त, विक्षेपरहित, शान्त स्थान में बैठना आवश्यक था । इसलिए उन्होंने अपने बहुश्रुत शिष्य पुष्यमित्र को बुलाकर समझाया"मुझे अब सूक्ष्मध्यान की साधना करनी है, इसलिए तुम मेरी सेवा में रहो तो दर्शनार्थियों को तथा इन अगीतार्थ साधुओं को भी संभाल सकोगे, मैं शान्ति से अपनी साधना कर लूंगा । बोलो, तुम्हारी क्या इच्छा है ?" उसने आचार्यश्री का कथन स्वीकार किया । आचार्यश्री ने एक एकान्त, शान्त, विक्षेपरहित कमरे का प्रमार्जन - प्रतिलेखन करके अपना आसन जमाया और ध्यान में लीन हो गये । अब जो भी दर्शनार्थी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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