________________
२५०
आनन्द प्रवचन : भाग १०
देखा जाय तो सुध्यान और ज्ञान में कथंचित् अभेद भी है । महापुराण का यह श्लोक इस बात का साक्षी है
यद्यपि ज्ञानपर्यायो ध्यानाख्यो ध्येयगोचरः।
तथाऽप्येकानसंदष्टो धत्ते बोधादि वाऽन्यताम् ॥ यद्यपि ध्यान, ज्ञान की ही पर्याय है, और यह भी ज्ञेय की तरह ध्येय को विषय करने वाला होता है, तथापि सहवर्ती होने के कारण वह ध्यान ज्ञान-दर्शनसुख-वीर्यरूप व्यवहार को भी धारण कर लेता है।
ध्यान और ज्ञान में मुख्यतया यही अन्तर है कि ज्ञान व्यग्र होता है, ध्यान नहीं, ध्यान तो एकाग्र कहलाता ही है । वस्तुतः किसी एक विषय में ज्ञान का निरन्तर रूप से रहना ध्यान है और वह क्रमरूप होता है।
ज्ञान की धारा अनेक विषयवाहिनी होती है, उसे एक विषयवाहिनी बना देना ही तो ध्यान है। ज्ञान सम्यक् हो तो ध्यान एक शुभ विषयवाही बनता है और ज्ञान असम्यक् (मिथ्या) हो तो वह अशुभ विषयवाही ही बनता है । ज्ञान और ध्यान दोनों में यही अन्तर है। इसलिए ये दोनों अन्योन्याश्रित या एक-दूसरे से परस्पर मिले हुए रहते हैं। चारित्र का परममित्र सुध्यान : महत्व और लाभ
सभी धर्मों ने ध्यान का महत्त्व एकस्वर से स्वीकार किया है । आत्मा की शक्तियों को एकाग्र करने तथा एकाग्र आत्मशक्तियों के यथायोग्य दायित्व, कर्तव्य या आचरण पर विश्लेषण करने के लिए ध्यान से बढ़कर कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु विश्व में नहीं है । मन, वचन, काया की, आत्मा और इन्द्रियों की बिखरी या भटकी हुई अथवा उत्पथ पर लगी हुई शक्तियों को एकजुट या एकाग्र करने की इससे बढ़कर कोई साधना नहीं है।
पाश्चात्य विचारक सी. सिम्मन्स (C. Simmons) के शब्द में देखिए
“Meditation is the nurse of thought and thought is the food for meditation."
'ध्यान शुभचिन्तन की धायमाँ है, और शुभचिन्तन ही ध्यान की खुराक है ।' वास्तव में शुभचिन्तन से चित्तशुद्धि होती है और आत्मा विशुद्ध बन जाती है ।
ध्यान चित्तशुद्धि की वह प्रक्रिया है, जिससे चित्त में स्थित वासना, कामना, संशय, अन्तर्द्वन्द्व, तनाव, क्षोभ, उद्विग्नता, चिन्ता, अशान्ति, अप्रसन्नता आदि विकार दूर होते हैं और चित्त शान्त, निर्द्वन्द्व, स्वस्थ एवं प्रसन्न होता है । चित्त की पवित्रता से उच्च विचार आते हैं, उनसे संकीर्णताएँ टूटती हैं, उदारता आती है। इस प्रकार ध्यान से जीवन मंगलमय बन जाता है। अतः ध्यान चारित्र का मित्र है। यह चारित्र को सत्पथ पर सुदृढ़ और शुद्ध रखने तथा जीवन के सच्चे माने में आनन्दपूर्वक जीने की साधना है ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org