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चारित्र की शोभा : ज्ञान और सुध्यान-२
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सोमिल ब्राह्मण, जिसकी कन्या के साथ गजसुकुमार के पाणिग्रहण की बात श्रीकृष्णजी ने पक्की कर दी थी। आज उसी श्मशान भूमि में यज्ञ के निमित्त समिधा, पत्र, पुष्प आदि लेने आया हुआ था। सन्ध्या का समय था। सोमिल विप्र ने ज्यों ही ध्यानस्थ गजसुकुमार मुनि को देखा-वह विस्मित और क्रुद्ध होकर उनके प्रति कटु वाणी से आग बरसाने लगा-"दुष्ट, अधम, नीच, कायर ! मेरी कन्या को यों निराधार छोड़कर तूने मुण्डित होकर साधु बनाने का ढोंग रचा है । देख, मैं भी तुझे मजा चखाता हूँ।" इस प्रकार बकझक करता हुआ सोमिल एक खप्पर लेकर जलती हुई चिता में से धधकते अंगारे उसमें भर लाया और आव देखा न ताव, मुनि गजसुकुमार के कोमल मुण्डित मस्त क के चारों ओर गीली मिट्टी की पाल बांधकर उस पर धधकते अंगारे उंडेल दिये।"
आग की असह्य वेदना थी, राजकुमार का कोमल शरीर था, पहला ही दिन था-ऐसी कठोर साधना का, और भयंकर पीड़ा का । फिर भी मुनि गजसुकुमार अपनी आत्मा में मेरु की भाँति अडोल और स्थिर रहे। उनके मन में सोमिल के प्रति जरा भी रोष, द्वेष या दुर्भाव नहीं आया और न ही अपने शरीर के प्रति मोह, आसक्ति या रक्षा का भाव आया। धैर्य, गाम्भीर्य, क्षमा और सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति बनकर वे अविचल भाव से खड़े रहे, आत्मा के परम उज्ज्वल शुक्लध्यान में वे संलग्न रहे। बाह्य जगत् से बिलकुल विमुख होकर एकदम अन्तर्मुखी बन गये थे । कुछ ही देर में उनका भौतिक शरीर नष्ट हो गया, जिसे एक दिन होना ही था और उनकी आत्मा केवलज्ञान प्राप्त करके परमधाम-मोक्ष में जा पहुंची।
यह था-शरीरात्म-भेदज्ञान की सुध्यान के द्वारा स्वरूपाचरण में सतत परिणति ! वस्तुतः उनका ज्ञान सुध्यान के माध्यम से आत्मा में स्थिर हो गया था। देहाध्यास बिलकुल छूट चुका था। इसलिए उनकी आत्मा सुध्यान साधना द्वारा निश्चयचारित्र की पराकाष्ठा पर पहुंच चुकी, जिससे वे स्वयंसिद्ध, बुद्ध, मुक्त और कृतकृत्य हो गए।
वास्तव में, चारित्र को पराकाष्ठा पर पहुँचाने के लिए ज्ञान के साथ सुध्यान अत्यन्त आवश्यक है। ज्ञान को व्यापक, उदार और सक्रिय बनाने वाला सुध्यान ही ही है। यदि सुध्यान न हो तो अकेला ज्ञान पस्तहिम्मत हो जाता है, वह आगे बढ़ने का साहस नहीं कर सकता। यदि मुनि गजसुकुमार सुध्यान में एकाग्र न होते तो उनका कोरा आत्मज्ञान समत्व, शान्ति, क्षमा और मैत्री के आचरण के आग्नेय पथ पर टिका नहीं रहता, वे उखड़ जाते और चारित्र से भ्रष्ट हो जाते, आत्मज्ञान तो कभी का विदा हो चुकता।
ज्ञान और सुध्यान में खास अन्तर नहीं इसलिए हम दावे के साथ कह सकते हैं कि ज्ञान और सुध्यान दोनों बन्धुओं की जोड़ी साथ-साथ रहे तो चारित्र को उन्नति के शिखर पर पहुंचा सकते हैं । वैसे
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