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________________ प्रशम की शोभा : समाधियोग-२ २०१ का कर्ता है, ऐसी दशा में उसे संतुष्ट कैसे किया जा सकेगा? अतः ऐसी निरंकुश इच्छाएँ, अभिलाषाएँ, आवश्यकताएँ या लालसाएं प्रशम में बाधक कारण हैं। प्रशमसाधक को इनसे छुटकारा पाना अत्यावश्यक है । सिकन्दर ने अपनी इच्छाओं एवं लालसाओं की पूर्ति के लिए जिन्दगी भर भरसक प्रयत्न किया फिर भी क्या उसकी वे सब इच्छाएँ और लालसाएँ पूर्ण हो गईं ? उनकी पूर्ति के बाद भी उसके मन में घोर अशान्ति मरते दम तक बनी रही, वह शान्ति नहीं पा सका। शान्त और सुखी रहने का एक ही उपाय है कि अपनी वर्तमान स्थिति में सामंजस्य रखते हुए सन्तुष्ट रहा जाए, उपलब्ध साधनों का सदुपयोग किया जाए और अभिलाषाओं, इच्छाओं तथा मन:कल्पित आवश्यकताओं के इशारे पर न नाचा जाए। प्रतिकूल-अप्रिय परिस्थितियाँ भी बाधक प्रशम में बाधक कारण प्रतिकूल अप्रिय परिस्थितियाँ भी होती हैं । ऐसा कभी किसी के लिए सम्भव ही नहीं होता कि जीवन में सदैव अनुकूल परिस्थितियाँ ही रहें, अप्रिय परिस्थितियां आयें ही नहीं । कई बार दुर्जन लोगों की ओर से सीधे और सरल व्यक्तियों को सताया जाता है, आतंकित किया जाता है, डराया जाता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य का प्रशम में टिक पाना दुष्कर होता है । कई बार परिस्थितियां मनुष्य को स्थान परिवर्तन के लिए विवश कर देती हैं। नौकरी-पेशा वालों का तबादला होता रहता है । व्यापार, शिक्षा या अन्य कारणों से पति-पत्नी को अलग-अलग रहना पड़ता है। कई बार आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ता है। दैवी प्रकोप से अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, भूकम्प, बाढ़, अग्निकाण्ड, चोरी, डकैती, भावों की तेजी-मन्दी, विश्वासघात, ठगी, प्रतिस्पर्धा, कमाऊ व्यक्ति की मृत्यु आदि कितनी ही आकस्मिक दुःखद परिस्थितियाँ मनुष्य के सामने आती हैं, जिनमें भारी हानि उठानी पड़ती है । सुनहरे सपने परिस्थितियों के थपेड़े खाकर चूर-चूर हो जाते हैं । परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया, नौकरी से बर्खास्त हो गया, अथवा बेकार बैठे रहना पड़ा, नौकरी न मिली या स्वयं अथवा परिवार के किसी सदस्य को कोई ऐसी पाजी बीमारी लग गई, जिसके इलाज में हजारों रुपये स्वाहा हो गये । ये सब अप्रिय परिस्थितियाँ प्रशम की कसौटी करती हैं। प्रशम-साधक व्यक्ति इन प्रतिकूल परिस्थितियों से घबराता नहीं। वह धैर्य और दूरदर्शिता से काम लेता है, जिसका निवारण हो सकता है, निवारण करता है, जिसका निवारण नहीं हो सकता, जिसके सहे बिना कोई चारा नहीं है, प्रशम-साधक व्यक्ति रोते-बिलखते नहीं सहेगा, हँसते-हँसते सहेगा। ठण्डे मस्तिष्क से विचार करके मनुष्य समागत विपत्ति को टाल सकता है तो टालने का प्रयत्न करता है । असफलता के समय दिल छोटा करने और निराश होने की क्या बात है ? सदैव सफल होना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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