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________________ प्रशम की शोभा : समाधियोग-२ १९६ नई-नई सभ्यताएँ आदि भी बढ़ते जा रहे हैं । विभिन्न प्रकार के रहन-सहन, वेष-भूषा, भाषा, प्रान्त, वर्ग, धर्म-सम्प्रदाय, आहार-विहार, संस्कार आदि विकसित होकर संसार में फैल गये हैं । साधारण मनुष्य का मन इन विभिन्नताओं देखकर परेशान एवं क्षुब्ध हो उठता है। तर्क से एक विचार को दूसरा विचार काट देता है। ऐसी स्थिति में मानव के दिमाग में घुसा हुआ अहं का भूत नाचने लगता है। वह अपने विचार, भावना, संस्कार आदि पर 'मेरापन' चिपका लेता है। इस कारण अपने विचार संस्कार आदि से विपरीत जब किसी दूसरे विचार, संस्कार आदि को सुनता है तो असहिष्णु होकर उनका विरोध, खण्डन, निन्दा एवं उपेक्षा करने लगता है। इस प्रकार एक के प्रति राग, मोह, आसक्ति और मेरापन तथा दूसरे के प्रति द्वेष, घृणा, अरुचि और परायापन मनुष्य के मन में जागता है, वही असहिष्णुता अशान्ति का कारण यानी प्रशम का बाधक कारण बन जाता है। जब इस प्रकार की असहिष्णुता मानवमन में पैदा होती है तो वह अपने और अपनों से या अपने माने हुए से भिन्न के प्रति द्वेष, दुर्भाव और रोष से प्रेरित उसे अपदस्थ करने का प्रयास करता है। इसी में से ईर्ष्या , द्रोह, छल-कपट, स्वार्थ और संघर्ष आदि जन्म लेते हैं। इन्हीं कारणों से अनपढ़-पढ़ेलिखे, धनवान-निर्धन, मालिक-मजदूर, स्त्री-पुरुष और बच्चे-बूढ़े सभी परेशान और अशान्त होते रहते हैं। दृष्टिकोण की यह संकीर्णता या क्षुद्रता भयानक कारागार है, जिसमें बन्दी बना हुआ मनुष्य अनेकान्त दृष्टि की उपेक्षा के कारण एकाकीपन और सूनेपन से घिरकर तड़पता-कलपता रहता है। इस प्रकार के संकीर्ण दृष्टिकोण वाला अपनी मान्यता, विचारधारा या दृष्टि के विरुद्ध कुछ भी सुनना पसन्द नहीं करता, इसलिए वह दूसरी मान्यता, विचारधारा आदि की कटु आलोचना एवं निन्दा करने पर उतारू हो जाता है। इस प्रकार वह अपनी मान्यता, विचारधारा या दृष्टि से भिन्न मान्यता, विचारधारा आदि को कतई सहन नहीं कर पाता, किसी दूसरी सभ्यता और संस्कृति को फूटी आँखों से फलते-फूलते नहीं देख पाता। पूर्वाग्रह के कारण वह यही मानता है कि जो उससे सम्बन्धित है, वही सत्य, शिव और सुन्दर है अन्य सब कुछ असत्य, अमंगल एवं अशुभ है। भला विविधताओं और विभिन्नताओं से भरे इस संसार में ऐसे संकुचित और तुच्छ दृष्टिकोण वाला व्यक्ति कैसे प्रशमयुक्त-शान्त और सुखी रह सकता है ? जब तक दृष्टिकोण में व्यापकता, उदारता, सहिष्णुता और दूसरों को समझने की गम्भीर दृष्टि नहीं आयेगी, तब तक प्रशम उससे कोसों दूर रहेगा। प्रशम का एक बाधक कारण है-वस्तुओं और विषयों का संसार में बाहुल्य हो जाने के कारण मनुष्य की आवश्यकताओं और इच्छाओं में वृद्धि। संसार में जीने के साधन कम हैं और जनसंख्या में अपरिमित वृद्धि होती जा रही है। इस कारण साधारण मानव स्वार्थ, ईर्ष्या, द्वेष, मोह, लोभ, क्रोध, काम आदि दूषणों से घिर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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