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________________ १९८ आनन्द प्रवचन : भाग १० वार एवं सांसारिक विषय-भोगों की प्राप्ति होती रहे और प्रशम-रस का स्वाद भी चखते रहें ? यानी विष को भी पीते रहें और अमृत का आस्वादन भी करते रहें। यह कदापि सम्भव नहीं होगा। ऐसा लक्ष्यबिन्दु झूठा है। प्रशम-प्राप्ति के सच्चे लक्ष्यबिन्दु के साथ उसके साधक कारणों के सिवाय और कोई बात नहीं होती । सारी लौकिक बाधाएँ आ पड़ने पर भी उस लक्ष्यबिन्दु से एक इंच भी इधर-उधर आपका मन-वचन-काय न होने पाये, तभी समझना कि वह सच्चा है। किसी भी विपय की सच्ची श्रद्धा एवं निष्ठा तभी होती है, जब उस विषय की सत्यता का अनुभव हो जाये । पोथियों से या धर्मग्रन्थों से भले ही आप उस विषय में बहुत-सी जानकारी प्राप्त कर लें, परन्तु वह जानकारी अनुभव की या अनुभवियों की कसौटी पर कसी न जाये, तब तक कच्ची है, सन्देहास्पद है, मनिश्चयात्मक है, कभी मिथ्या भी हो सकती है। अत: लक्ष्यविन्दु के प्रति अनन्य श्रद्धा के बाद उसका अनुभवात्मक या परीक्षणात्मक सम्यग्ज्ञान होना अपेक्षित है। प्रशम-प्राप्ति का अनुभवात्मक सम्यग्ज्ञान-परिपक्व ज्ञान होगा, तभी गाड़ी आगे चलेगी, वरना प्रशमप्राप्ति के मार्गों या उपायों का सम्यग्ज्ञान न होने से आप वाचालों और ठगों के चंगुल में फंस जाएंगे और प्रशम-प्राप्ति के बदले अशान्ति के चक्कर में फंसकर जीवन का पतन कर लेंगे। तात्पर्य यह है कि प्रशम-प्राप्ति के लक्ष्यबिन्दु के प्रति सच्ची श्रद्धा हो, सम्यग्ज्ञान हो, परन्तु आगे चलने की हिम्मत न हो, आचरण के लिए पुरुषार्थ न करे तो वह श्रद्धा एवं ज्ञान दोनों बन्ध्य हो जायेंगे । इसलिए प्रशम-प्राप्ति में बाधक कारणों से दूर रहते हुए साधक उपायों पर चलना चाहिए, तभी लक्ष्य-प्राप्ति हो सकेगी। प्रशम-प्राप्ति के त्रयात्मक मार्ग पर विश्वास और अनुभव के साथ गति-प्रगति करने से ही साधक लक्ष्य तक पहुंच सकेगा। प्रशम-प्राप्ति में बाधक तत्व अब प्रश्न यह होता है कि प्रशम-प्राप्ति में क्या-क्या बाधाएं हैं ? कौन-कौन से तत्त्व प्रशम को नष्ट कर देते हैं ? प्रशम-साधक को किन-किन तत्त्वों से बचकर सावधान रहना चाहिए ? आइए, इन प्रश्नों पर गम्भीरता से विचार कर लें। प्रशम के लक्षणों में काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, मत्सर आदि अशान्ति. वर्द्धक दुःखाग्नि बताये गये हैं, जब तक ये रहेंगे, इतना ही नहीं, इनके मूल बने रहेंगे, तब तक प्रशम जीवन में आ नहीं सकेगा। इसलिए सर्वप्रथम प्रशम-बाधक इन तत्त्वों से साधक को बचना आवश्यक है। मनुष्य के मन में उत्पन्न होने वाली असहिष्णुता, अहंकारजनित असहनशीलता भी प्रशम-प्राप्ति में बाधक होती है। संसार में जनसंख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है, उसके साथ-साथ नये विचार, नई भावनाएँ, नई इच्छाएँ, नये अरमान, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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