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________________ ३२०, अपरिग्रहवृत्ति के चार मुख्य रूप ३२०, विशुद्ध अकिंचनता ३२१, छोटे से दोष की भी शुद्धि करनी चाहिए, प्रत्येकबुद्धों के चरित्र की प्रेरणा ३२२ । ५६. राजमन्त्री बुद्धिमान सोहता ३२४-३४५ राजा और मन्त्री का अटूट सम्बन्ध ३२४, मन्त्री रूपी स्तम्भ राज्यमन्दिर को सुदृढ़ रखने के लिए आवश्यक ३२५, फलभागी राजा: कार्यभागी मन्त्री ३२६, मन्त्री : राजा और प्रजा दोनों का हित साधक ३२८, सत्ता-मदान्ध राजा के स्खलन के समय मन्त्री ही आलम्बन ३३०, कल्पक मन्त्री का दृष्टान्त ३३१, मन्त्री कैसा हो, कैसा नहीं ? ३३४, मन्त्री के गुण-विभिन्न ग्रन्थों के उद्धरण ३३५, मन्त्र-तन्त्र कुशल ३३६, देश-काल देखकर कदम उठाने वाला ३३७, राजभक्त ३३८, शास्त्रज्ञ ३३६, दूसरों की कपट क्रिया को भाँप सके ३४०, मित्र एवं स्व-पर पर सम ३४१, व्यवहार देखकर उत्तर देने वाला ३४१, शिष्टपालक : दुष्टनिग्राहक ३४१, धर्मिष्ठ ३४१, कार्यार्थी ३४१, परमतत्त्व के प्रति प्रतिबद्ध हृदय वाला ३४२, मन्त्री के दूषण ३४३, वर्तमान युग के मन्त्री ३४५, मन्त्री की शोभा : स्थिर बुद्धिमत्ता ३४५ । ५७. पतिव्रता लज्जायुक्त सोहती ३४६-३६६ - पतिव्रता और पतिव्रत-धर्म की महिमा ३४६, पतिव्रत धर्म : एक समर्पण योग-साधना ३५०, पतिव्रता का आदर्श : पति के दोष न देखना, न सुनना ३५१, पतिव्रता का पति के साथ सम्बन्ध आत्मा का है ३५२, पति के साथ अभिन्नता के कारण संघर्ष नहीं ३५३, पतिमंता और पतिव्रता का अन्तर ३५४, पतिव्रता पति के धर्म को सुरक्षित रखने वाली ३५८, पत्नी के लिए सुन्दर विशेषण-उपासक दशांग सूत्र के अनुसार ३६०, पतिव्रता : सर्वांगीण स्वरूप और उद्देश्य ३६१, सर्वांशत : पति में अनुरक्त नारी-पतिव्रता ३६३, पतिव्रता का मुख्य लक्षण : लज्जा ३६४, लज्जा गुण के आश्रित अन्य गुण ३६६, पतिव्रता स्त्री के छह गुण ३६६ । ५८. अनवस्थित आत्मा : अपना ही शत्रु ३७०-३८८ आत्मा ही आत्मा का शत्रु : कैसे और क्यों ? ३७०, भारत का भ्रान्त ईश्वरवाद और अमेरिका का परिस्थितिवाद गैर जिम्मेदारी वाद है ३७२, आत्मा स्वयं ही कर्मों का कर्ता और भोक्ता है ३७२, अपने कर्मों के लिए आस्मा ही उत्तरदायी है ३७४, आत्मा अपना शत्रु कब और कैसे ? ३७७, आत्मा कब अवस्थित, कब अनवस्थित ? ३७८, अवस्थित के सात अर्थ ३७८, अनवस्थित आत्मा के लक्षण ३७९, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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