SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८० आनन्द प्रवचन : भाग १० प्रकार से न मिलने से वे दूध देना बन्द कर देते हैं । दुश्मनों को हँसी उड़ाने का मौका मिलता है। मृत्यु के कारण उसके बदले में नया उत्तरदायित्व निभाने के लिए जो आवश्यक परिवर्तन करने पड़ते हैं, वे नहीं हो पाते । फलतः अज्ञान के कारण यह मृत्युशोक नई विपदाएँ और अशान्तियाँ उत्पन्न कर देता है। ऐसे समय में विवेक-बुद्धि और दूरदर्शिता के साथ यह सोच लिया जाता कि घटित घटना वापिस लौट नहीं सकती, गया व्यक्ति आ नहीं सकता, अन्त में शोक को समाप्त करके साधारण क्रम अपनाना ही होगा, तो बिना अधिक समय गँवाये और अधिक क्षति उठाये ही कार्य हो जाता। परन्तु होता यह सब प्रशम की प्रक्रिया को अपनाने पर ही। अज्ञानवश आवश्यक रूप में उत्पन्न की जाने वाली अशान्ति और विपत्ति से बचने का सर्वोत्तम उपाय है-ज्ञानपूर्वक प्रशम प्रक्रिया अपनाना । इसी प्रकार प्रत्येक विपत्तिजनक, हानिकारक एवं अशान्ति-उत्पादक कार्य को पहले से ही सुधारने के लिए विवेकपूर्वक प्रशम को अपनाना आवश्यक है। प्रशम की आवश्यकता गृहस्थों से भी बढ़कर साधुओं को है । कल्पसूत्र में बताया गया है कि कदाचित् दो साधुओं में परस्पर किसी बात पर उग्र विवाद, कलह (अधिकरण) या मनमुटाव हो गया तो हथेली की भीगी रेखाएँ न सूखें, इतने से समय में ही यानी शीघ्र से शीघ्र आपस में क्षमायाचना करके उस कलह को उपशान्त कर देना चाहिए और फिर उस प्रशान्त हुए कलह को फिर कुरेदकर उखाड़ना या भड़काना नहीं चाहिए । मान लो, एक साधु जो दीक्षा में बड़ा है, कलह शान्त करने के लिए क्षमायाचना करना चाहता है, मगर दूसरा (छोटा साधु) क्षमायाचना करना तो दूर रहा, आँख भी उठाकर नहीं देखता, न ही उसे आदर देता है, ऐसी स्थिति में क्या किया जाय ? शास्त्रकार कहते हैं कि ऐसी स्थिति में, जो साधु कलह शान्त करना चाहता है, वह चाहे दीक्षा में ज्येष्ठ ही हो, उसे चलाकर उस साधु से क्षमायाचना कर लेनी चाहिए, वह आदर दे या न दे, उसकी बात सुने या न सुने । क्योंकि 'उवसमसारं खु सामण्णं' श्रमणत्व का सार उपशम-प्रशम है । श्रमणधर्म या श्रमणसंस्कृति प्रशम और शम को लेकर ही संसार में प्रस्तुत हुई है। सारे संसार में प्रशम का झण्डा लेकर चलने वाली श्रमणसंस्कृति के साधु-श्रावक प्रशम को छोड़कर अप्रशम को महत्त्व दें, यह तो दिया तले अंधेरा वाली कहावत चरितार्थ करना है। इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि प्रशम की कितनी उपयोगिता है, मानव-जीवन में ? मेवाड़ के एक गाँव में एक सेठ और ढेढ़ (हरिजन) का मधुर सम्बन्ध था। एक बार किसी कारणवश उनका सम्बन्ध टूट गया। परस्पर वैमनस्य इतना बढ़ गया कि आपस में लेन-देन एवं बोलचाल भी बन्द हो गई। सेठ ढेढ़ को देखता तो जल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy