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________________ प्रशम की शोभा : समाधियोग - १ १७६ श्रमण संस्कृति अथवा श्रमणत्व में पद पद पर प्रशम को महत्त्व दिया गया है । आप कोई महत्त्वपूर्ण भगीरथ कार्य करने जा रहे हैं, परन्तु उस कार्य में सहयोगियों के साथ आपकी ठन गई, घरवालों के साथ आपका मनमुटाव एवं मनोभेद, मतभेद तथा मनोमालिन्य हो जाता है तो वहां सारा ही काम गुड़गोबर हो जाता है । उस कार्य में बरकत नहीं होती । प्रशम के होने पर ही सब कार्य ठीक होते हैं । मनोभेद, मतभेद या मनमुटाव होने पर जितनी जल्दी आपस में क्षमा-याचना करके उसे शान्त कर लिया जाता है, उतनी ही जल्दी सभी कार्य सुधर जाते हैं । किसी के घर में तीन प्राणी हैं, और रोटी सिर्फ दो हैं । ऐसे समय में तीनों व्यक्ति आपस में तू-तू मैं-मैं करने लगें और एक दूसरे से छीना-झपटी करें तो अशान्त होकर सभी दुःखी हो जायेंगे । अतः वहाँ सबको प्रशम धारण करने की आवश्यकता होती है । प्रशम के कारण सभी के हिस्से में थोड़ी-थोड़ी रोटी आ जायगी, भले ही भरपेट न मिले, पर शरीर का आधार तो हो ही जाएगा। इसी प्रकार किसी महत्त्वपूर्ण कार्य को ४ आदमियों ने मिलकर किया, परन्तु उनमें से कोई एक अपने अहं को महत्त्व देकर स्वयं अकेला ही उस कार्य का श्रेय लेने लगे तो सभी अपने-अपने अहं को महत्त्व देने लगेंगे और अन्त में अशान्त होकर परस्पर सिर फुटौब्बल ही मचाएंगे । जैसे कि महाराणा प्रताप और शक्तिसिंह में स्वयं अपने श्रेय को पाने के लिए विवाद खड़ा हो गया था और उस विवाद ने इतना अधिक तूल पकड़ लिया कि दोनों एक-दूसरे को मारने के लिए अपनी-अपनी तलवार खींचकर प्रहार करने पर उतारू हो गये थे । अगर वहाँ पुरोहित ने अपना बलिदान देकर उन दोनों के अहं का नशा न उतारा होता और शान्ति ( प्रथम ) के लिए ऐसा स्वयं प्राणोत्सर्ग का प्रयास न किया होता तो कितना बड़ा अनर्थ हो जाता । निष्कर्ष यह है कि अहंकार को मिटाने के लिए प्रशम के प्रयत्न की अत्यन्त आवश्यकता होती है । घर में किसी की मृत्यु हो गई, एक प्रिय पात्र चल बसा। उसके जाने से हानि भी हुई, धक्का भी लगा और शोक के कारण रुलाई भी आई । पर यदि लगातार रोते ही रहा जाय तो परिणाम एक ही सम्भव है कि रहे सहे स्वास्थ्य का नाश और उस गड़बड़ी में साधारण कार्यक्रमों के नष्ट होने से दुगुने संकट का प्रादुर्भाव ! दिल की धड़कन बढ़ना, ब्लडप्रेसर, अनिद्रा, मूर्च्छा, उन्माद, अपच, वमन, सिरदर्द, आँखों की रोशनी घटना आदि अनेकों रोग उठ खड़े होते हैं । दूसरे लोग उस शोक सन्तप्त परिवार को समझाने-बुझाने, थोथी सहानुभूति बताने, कोरा आश्वासन देने में लगे रहते हैं, जिससे साधारण व्यवस्था भी बिगड़ जाती है तो दूसरी ओर से भी बिना देख-भाल के अनेक काम बिगड़ जाते हैं । खेती या व्यापार बिना देख-भाल के चौपट हो जाते हैं । बच्चों के स्कूल न जाने से अध्ययन नहीं हो पाता है । दुधारु पशुओं को समय पर न दुहे जाने या उन्हें चारा-पानी ठीक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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