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आनन्द प्रवचन : भाग १०
अन्यथा, साधु भी रत्नत्रय एवं तप में पुरुषार्थं न करके आत्महीनता का शिकार ब कर बैठ जाए कि मुझमें कहाँ तीर्थंकर जितनी शक्ति है, इसलिए मैं तो रत्नत्रय या तप में इतना तीव्र पुरुषार्थ कर नहीं सकता, तो उसकी भी आत्म-शक्तियाँ इतनी उबुद्ध नहीं हो सकेंगी । अगर गृहस्थ भी अपनी आत्मशक्तियों को जाग्रत करने के लिए अहर्निश पुरुषार्थं करता है, रत्नत्रय एवं तप में तो वह साधु से भी आगे बढ़ सकता है, आत्मशक्ति की घुड़-दौड़ में और अपनी आत्मशक्तियों को अधिकांश रूप में जाग्रत कर लेता है |
इसी दृष्टि से भगवान महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र संति एगेहि भिक्खूहं गारत्था संजममुत्तरा । गारत्थेहि य सव्र्व्वेहि साहवो संजममुत्तरा ॥
" कई भिक्षुओं से गृहस्थ संयम में बढ़कर होते हैं, परन्तु सामान्यतया सभी गृहस्थों की अपेक्षा साधु संयम में उत्कृष्ट होते हैं ।"
जो लोग यह शिकायत करते हैं कि हम में उग्रतप करने की शक्ति, समय और निश्चितता नहीं है, उन लोगों से पूछा जाये कि तुम ताश खेलने बैठते हो या जूआ खेलने लगते हो, अथवा इधर-उधर का निन्दापुराण या राजनैतिक हलचल की कथा छेड़ देते हो, अथवा किसी से लड़ाई-झगड़ा करने लगते हो, किसी दुर्बल को मारनेपीटने लगते हो, अथवा निर्दोष पशु-पक्षियों का शिकार करने लगते हो, परस्त्रीलम्पटता या कामुकता में फँस जाते हो, या सैर-सपाटे करने के लिए दूर-दूर चले जाते हो, व्यापार-धन्धे में मुनाफा मिलता हो तो आफिसर के यहाँ १० बार चक्कर लगा लेते हो, कहीं नाटक या खेल तमाशा हो रहा हो तो वहाँ बिना बुलाये चले जाते हो और रातभर नींद हराम कर लेते हो, अथवा अपने निवास स्थान पर भूकम्प, बाढ़, या महामारी जैसी कोई आफत आ गई हो तो उस समय तुरन्त वहाँ से भागकर रातभर जागकर भूखे-प्यासे रहकर भी सैकड़ों कोस दूर चले जाते हो; उस समय भी क्या तुम समय न मिलने, शक्ति न होने या निश्चिन्तता न होने का बहाना बनाते हो या इन निन्द्य कामों में भी किसी से बिना पूछे ही लग जाते हो ? नहीं, नहीं, उस समय तो तुम बड़े सयाने बन जाते हो और कहने लगते हो - "महाराज ! यह तो लाचारी की परिस्थिति थी, इसलिए हमने अपनी शक्ति भी जुटाई, समय भी निकाला और निश्चिन्तता न होते हुए भी अपना काम बनाया । परन्तु निन्दा - चुगली करना, शिकार खेलना, जुआ, ताश, चौपड़ आदि खेलना, परस्त्री - लम्पटता, आदि कौन-सी लाचारी है, कौन-सी विवशता है, जिस कारण इन दुष्कृत्यों में तुमको अपनी शक्ति प्रगट करनी पड़ी ? जब इन दुष्कृत्यों, दुर्व्यसनों और निरर्थक कृत्यों में तुम शक्ति प्रगट कर सकते हो, समय निकाल सकते हो और निश्चिन्तता न होते हुए भी अपना कार्य झटपट बना सकते हो, तब धर्मकार्य में - उग्र तपश्चरण में अपनी शक्ति लगाने में क्यों कतराते हो, क्यों पीछे हटते हो, क्यों यह सब बहानेबाजी करते हो ?
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