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१२६ आनन्द प्रवचन : भाग १० तत्त्वपरायण सुसाधु सत्य को बहुत शीघ्र स्वीकारता है
तत्त्वपरायण सुसाधु में एक विशेषता यह होती है कि वह सत्य को-वस्तु के यथार्थ अन्तस्तत्त्व को-ज्यों ही समझ लेता है, त्यों ही उसे नम्रतापूर्वक स्वीकार करने में उसे कोई झिझक नहीं होती। वह पूर्वाग्रहपूर्वक किसी कुरूढ़ि या गलत परम्परा को पकड़े हुए नहीं रहता। ज्यों ही उसे अन्तर्ह दय से वस्तुतत्त्व का यथार्थ रूप समझ में आ जाता है, त्यों ही जैसे सांप कैंचुली को फैंक देता है, वैसे ही वह पहले की गलत मान्यता या परम्परा को फैंक देता है। फिर वह यह नहीं देखता कि मेरे अनुयायी क्या कहेंगे ? जिनको मैंने अब तक विपरीत रूप में वस्तुतत्त्व समझाया, वे अब इसे छोड़ते समय मुझे कोसेंगे, या मेरी निन्दा करेंगे, समाज में मेरी प्रतिष्ठा समाप्त हो जायेगी। इन बातों को यथार्थ तत्त्वनिष्ठ सुसाधु नहीं सोचता। वह इन्हें गौण मानता है।
जगद्गुरु आद्य शंकराचार्य भारत के बहुत बड़े अद्वैतवादी वेदान्ती संन्यासी थे । एक बार वे नदी में स्नान करके पवित्र होकर मन्दिर में जा रहे थे। अभी प्रातः काल के चार ही बजे थे। वे सीढ़ियाँ पार करके झुटपुटे अन्धेरे में चले जा रहे थे । तभी सामने से एक चाण्डाल आ रहा था, उसने उन्हें छू लिया। आचार्य शंकर एक बार तो अपने पूर्वसंस्कारानुसार क्रोधाविष्ट होकर बोले- "अरे चाण्डाल ! तू ने मुझे छूकर अपवित्र कर दिया।"
चाण्डाल भी कम तत्त्वज्ञ नहीं था। उसने पूछा-'आचार्यजी ! मैं यह पूछना चाहता हूँ कि किसने किसको छू लिया ? आप तो कहते हैं न कि एकमात्र ब्रह्म के सिवाय कोई तत्त्व है ही नहीं। सारा दृश्यमान संसार प्रपंच माया है, जिसका कोई अस्तित्व नहीं है । तो जो है ही नहीं, वह कैसे छुयेगी ? अगर आप कहते हैं कि मेरी आत्मा ने आपकी आत्मा छू लिया है, शरीर ने नहीं, क्योंकि आत्मा (ब्रह्म) सत्य है वह क्या चाण्डाल या शूद्र हो सकती है ? मुझे बताएं कि किसने आपको छूआ है ? अगर मेरी भूल होगी तो मैं आपसे क्षमा मागूंगा और भविष्य में ऐसी भूल कभी न करूँगा।"
आचार्य शंकर क्षणभर के लिए स्तब्ध हो गये। उनकी आँखों में विद्युत कीसी चमक आ गई। सारे शास्त्रों को पढ़-लिखकर जो तत्त्व आज तक वे नहीं प्राप्त कर सके थे, वह उन्हें इस सम्पर्क से अनुभव में आ गया। आचार्य शंकर ने तत्काल अपने पुराने पूर्वाग्रहग्रस्त संस्कार को फेंक दिया और सत्य का स्वीकार करते हुए कहा-"भाई ! क्षमा करना मुझे । मैं अब तक भ्रान्ति में था । मैं धर्मशास्त्रगत तत्त्व को आज तक कहता रहा, थ्योरी के रूप में ही; परन्तु आज पहली दफा मैं उसे क्रियान्वित कर रहा हूँ। कौन किसको छू सकता है ? कौन चाण्डाल है, कौन ब्राह्मण ? यह स्पष्ट कर दिया तुमने ।" कहते हैं, वे फिर गंगास्नान करने न गये सीधे मन्दिर में प्रविष्ट हो गये ।
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