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________________ ११६ आनन्द प्रवचन : भाग १० मक्खियाँ हलवाई की दुकान में बिक्री के लिए रखी हुई मिठाइयों पर आकर बैठती हैं, लेकिन जब वे आसपास विष्ठा से भरी हुई टोकरियाँ या गंदगी का ढेर देखती हैं तो तुरन्त उन मिठाइयों को छोड़कर उन विष्ठा से भरी मैली टोकरियों या गन्दगी पर बैठ जाती हैं । परन्तु मधुमक्खी ऐसा नहीं करती। वह सदैव फूलों के मधु-आस्वादन में लगी रहती है । संसार में फंसे हुए तत्त्वज्ञानहीन मनुष्य भले ही जरा-सी देर के लिए धर्मग्रन्थों से या प्रवचन-श्रवण से आध्यात्मिक ज्ञान का आनन्द ले लें, क्षणिक आस्वाद पा लें, परन्तु विषय-वासना की गन्दगी की तरफ उनकी स्वाभाविक संस्कारबद्ध प्रवृत्ति होने के कारण वे फिर झटपट उसी तरफ लौट आते हैं। परन्तु तत्त्वज्ञानी अध्यात्मरस के रसिक साधु पुरुष उन मधुमक्खियों की तरह सदैव सतत तत्त्वज्ञान के मधुर आस्वाद में या अध्यात्मज्ञान के दिव्य आनन्द में ही मग्न रहते हैं, विषय-वासनाओं की गन्दगी का तरफ उनका ध्यान जाता ही नहीं। मछली पकड़ने के लिए बने हुए बांस के जाल में चमकते हुए पानी को बहते हुए देखकर छोटी-छोटी मछलियाँ उसमें बड़ी प्रसन्नता से चली जाती हैं, किन्तु जाने के बाद फिर वे बाहर नहीं निकल सकतीं, वहीं फँस जाती हैं। इसी तरह संसार की मिथ्या चमक-दमक से मोहित तत्त्वज्ञानशून्य मूढ़ लोग विषय-वासना के जाल में चले जाते हैं, परन्तु लौटने का रास्ता सुगम न होने से वे उन छोटी मछलियों की तरह वहीं फँस जाते हैं और सदा के लिये बँध जाते हैं। मगर तत्त्वपरायण साधु पुरुष पहले तो मूढ़ होकर जाल में फंसते ही नहीं, कदाचित् धोखे से फँसा भी दिये जायें तो वे आसानी से निकल जाते हैं, वे उसमें फँसे और बंधे नहीं रहते । तत्त्वनिष्ठ साधनाशील को विषयों से विरक्ति एवं अरुचि जिस साधनाशील व्यक्ति में तत्त्वनिष्ठा बढ़ जाती है, उसमें विषयों के प्रति आसक्ति एवं रुचि अत्यन्त कम होती जाती है, उसे विषयों से विरक्ति हो जाती है, वह अपनी आत्मा को आत्मगुणों की वृद्धि करने और समस्त दर्शन-ज्ञान-चारित्र की उत्कृष्ट साधना करने में लगाता है और परमात्मा के निकट पहुँचने का सतत प्रयत्न करता है । इष्टोपदेश में सत्य ही कहा है यथा-यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् । तथा-तथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि ॥ यथा-यथा न रोचन्ते, विषयाः सुलभा अपि । तथा-तथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् ॥ बुद्धि में ज्यों-ज्यों उत्तम तत्त्व का प्रवेश होता है, त्यों-त्यों इन्द्रिय-विषयों की प्राप्ति आसान होने पर भी उसे उन शब्दादि विषयों में रुचि नहीं रहती; तथा ज्योंज्यों सुलभ इन्द्रिय-विषयों से भी उसकी रुचि हटती जाती है, त्यों-त्यों उसकी बुद्धि में उत्तम तत्त्व प्रविष्ट होता जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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