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________________ सुसाधु होते तत्त्वपरायण – २ ११५ उसने इसका कुछ भी जवाब दिये बिना तुरन्त पिंजरे का द्वार खोल दिया । तोता बन्धन से मुक्त हुआ, थोड़ा उड़ा, परन्तु आप आश्चर्य करेंगे कि बन्धन में ही सुख मानने वाला वह तोता आकाश में कुछ चक्कर लगाकर फिर आकर उसी पिंजरे में बंद होकर बैठ गया । क्या आज तत्त्वज्ञान से हीन साधारण मनुष्यों की स्थिति इस तोते जैसी नहीं है ? वे तत्त्व का स्वाभाविक आनन्द लेना भूल गये हैं, वे प्रवचन भी सुनते हैं, शास्त्र की पवित्र वाणी उनके कानों में पड़ती है, बन्धन मुक्ति की बातें कई बार स्वयं भी करते हैं किन्तु घूम-फिरकर पुनः उसी मोह-माया के बन्धन में - स्त्री- पुत्र धन-सम्पत्ति आदि के मोह में और शरीर, इन्द्रियों आदि की गुलामी के बन्धन में पुनः पड़ जाते हैं । कभी मसानिया वैराग्य आ भी जाता है तो वह चिरस्थायी नहीं होता । क्षणिक आवेश एवं सोडावाटर के उफान की तरह वैराग्य का उफान उन्हें आता है, और फिर वे संसार के उसी प्रवाह में बहे चले जाते हैं । उन सांसारिक लोगों में तत्त्वज्ञान की झाँकी कब तक टिकती है ? जब तक कि विषय-वासना का झौंका न आ जाए, कषायों की जरा-सी आँच न लगे, क्योंकि उनके तत्त्वज्ञान की जड़ें गहरी नहीं हैं । वृक्ष की जड़ें जितनी गहरी होती हैं, उतने ही वे ऊपर को बढ़ते, फलते-फूलते और मजबूत होते हैं, उसी प्रकार तत्त्वज्ञान की जड़ें जिसकी जितनी गहरी होती हैं, उसका जीवन उतना ही वृद्धिगत एवं पुष्पितफलित होता है, साथ ही उतना ही वह सुदृढ़ होता है । चाहे जितनी वासना की आँधियाँ चलें, चाहे जितनी कषायों की आग चारों ओर भड़के, वह शीतल, शान्त, निर्विकार, सिद्धान्तनिष्ठ, अटल-अचल होता है । तत्त्वज्ञानशून्य साधारण मानवों में यह बात नहीं होती । स्प्रिंग लगे हुए गद्दे पर बैठते ही वह नीचे को दब जाता है, परन्तु उठने के साथ ही वह फिर पहले की तरह ऊपर उठ जाता है । इसी प्रकार सांसारिक पुरुष जब तक धर्म की या आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान की बातें सुनते हैं, तब तक उनके विचार धार्मिकता तथा रटे-रटाए या धर्मग्रन्थों के द्वारा मस्तिष्क में ठूंसे हुए थोड़े-बहुत तत्त्वज्ञान में युक्त रहते हैं, परन्तु ज्यों ही वे किसी सांसारिक व्यवहार में जुटते हैं, त्यों ही वे उन धार्मिकता एवं तत्त्वज्ञान के उच्च तथा उत्तम विचारों एवं आदर्शों को भूलकर पूर्ववत् आचार-विचारयुक्त बन जाते हैं । लोहा जब तक भट्टी में रहता है, तब तक वह लाल सुर्ख रहता है, मगर भट्टी से बाहर निकलते ही फिर पहले की तरह काला हो जाता है । तत्त्वनिष्ठा से दूर साधारण सांसारिक लोगों की भी यही हालत है । वे धर्मस्थानों, मन्दिरों, उपासना - गृहों या साधु-सन्तों के प्रवचन श्रवणार्थ सत्संग में रहते हैं, तब तक विरक्ति या श्रेष्ठ भावों में अनुरक्त रहते हैं, परन्तु वहाँ से बाहर निकलते ही श्रेष्ठ भावों को भूलकर पूर्ववत् विषय-वासनाओं के काले भावों में डूब जाते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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