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________________ सुसाधु होते तत्त्वपरायण - १ जानन्ति केचित् न तु कर्तुमीशाः, कर्तुं क्षमा ये न च ते विदन्ति । जानन्ति तत्त्वम् प्रभवन्ति कतु, ते केऽपि लोके विरला भवन्ति ॥ " बहुत से लोग तत्त्व को जानते हैं, लेकिन वे तदनुसार आचरण नहीं कर सकते, इसके विपरीत बहुत से लोग करने में समर्थ होते हैं, लेकिन वे तत्त्व को नहीं जानते कि क्या करना है, क्या नहीं करना है ? कौन-सा तत्त्व हेय, ज्ञ ेय या उपादेय है, इस बात को वे नहीं जानते । १रन्तु जो लोग वस्तु तत्त्व को जानते हैं और तदनुसार व्यवहार या आचरण भी करने में समर्थ हैं, वे तो विश्व में बहुत थोड़े-से इनेगिने हैं ।" १०१ पहले की दोनों ही स्थितियाँ ठीक नहीं हैं । एक ओर वे लोग अन्ध स्थिति में हैं, जो तत्त्व को बिलकुल नहीं जानते, न जानने की रुचि है । वे लोग केवल क्रियाकाण्ड में रचे-पचे रहते हैं । उन क्रियाओं का क्या प्रयोजन है, उनका उद्देश्य क्या है, उनसे कौन-सी साधना में किस प्रकार से सहायता मिलती है ? इन बातों को वे नहीं जानते, क्योंकि उनके पास तत्त्वज्ञान के वे दिव्य नेत्र नहीं हैं । दूसरी ओर वे लोग हैं, जो तत्त्व को जानते तो हैं, तत्त्व की हेयता, ज्ञ ेयता और उपादेयता को भी समझते हैं, उस पर लम्बे-चौड़े भाषण भी दे सकते हैं, विस्तृत लेख भी लिख सकते हैं; पर वे तदनुसार आचरण करने में समर्थ नहीं हैं । ऐसे लोग स्थिति में हैं । आज अधिकांश लोग, विशेषत: ग्रामीण अनपढ़ लोग श्रद्धाशील होकर कुछ करने की भावना लिये हुए हैं, लेकिन क्या और कैसे करना, किस मार्ग से जाना, यह सूझ-बूझ उनमें नहीं है । उनके दिमाग में वस्तु के अन्तस्तत्त्व का ज्ञान नहीं है | अधिक समझाएँ तो वे मोटी-मोटी बातें ग्रहण कर सकते हैं, जबकि पढ़ेलिखे डिग्रीधारी लोग तत्त्वज्ञान की बातें बहुत बघार सकते हैं, व्याख्यान - मंच पर बैठकर तत्त्वज्ञान पर सुन्दर छटादार भाषण दे सकते हैं, परन्तु आचरण के नाम पर वे शून्य हैं । अश्रद्धा और कुतर्क के राहु-केतु उनकी सद्बुद्धि पर आवरण डाले हुए हैं, जिस कारण वे तत्त्वज्ञान की बातों को आचरण में लाने से कतराते हैं । तत्त्वज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले वे लोग अपने कुव्यसनों, अनावश्यक जरूरतों और मौज-शौक के विचारों के चंगुल से छूट नहीं पाते । इसलिए वे पंगु स्थिति में हैं । भारतीय अध्यात्मज्ञान के एक पुरस्कर्ता ने ठीक ही कहा है 'कोहि बहिर्वृत्ति-निवृत्तस्तत्त्वमीष्यते ।' " एकाग्र होकर बाह्य वृत्तियों से निवृत्त होने वाला व्यक्ति ही तत्त्व ( वस्तु के यथावस्थित स्वरूप) को पाता है । " जिनकी रुचि और श्रद्धा ही तत्त्वज्ञान प्राप्त करने तथा तदनुसार व्यवहार या आचरण करने की न हो, वे न तो किसी वस्तु के तत्त्व को जान सकते हैं, और न ही तदनुसार यथार्थ आचरण कर सकते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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