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________________ १०० आनन्द प्रवचन : भाग १० निःसत्त्व एवं खोखला होता है, वह विपत्ति की जरा-सी आँधी आते ही, प्रतिकूल परिस्थिति का जरा सा झौंका आते हो, परीषह की जरा-सी लपट आते ही ढह जाता है, हतोत्साह होकर उत्पथ पर चल पड़ता है, वह पतित और भ्रष्ट भी हो जाता है। तत्त्वाज्ञानरूप आन्तरिक सामर्थ्य के अभाव में बाह्य साधु-वेशभूषा में लिपटा, बाह्यक्रियाकाण्डी साधु विकारों की आँधियों के सामने टिक नहीं सकता। सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में उसका मन विषमता और क्लेश से या राग-द्वेष से भर जायगा, वह संतुलित एवं स्वस्थ नहीं रह सकता ।। साधुजीवन में जब तत्त्व-परायणता होती है, तो वह बड़ी से बड़ी विपत्ति एवं संकट घटा में भी उद्विग्न नहीं होगा । सुखों का सागर लहराता हो तब भी उसका मन उनके लिए ललचाएगा नहीं, दुःख हो या सुख, जीवन हो या मरण, शत्रु हो या मित्र, भवन मिले या विकट वन, संयोग हो या वियोग, तत्त्वपरायण साधु का मन सदैव समता की पगडंडी पर अविचल रहेगा। वह तत्त्वज्ञान के सहारे सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, भवन-वन, संयोग-वियोग आदि द्वन्द्वों का यथार्थ वस्तु स्वरूप जान लेता है कि ये सब नाशवान् पदार्थ, है, क्षणिक हैं, इनके प्रति न तो मोह या असक्ति होनी चाहिए, न द्वष या घृणा। ये तो स्वयं अपने आप में कुछ नहीं हैं। मनुष्य अपने मन में इनके बारे में जैसी-तैसी अच्छी-बुरी कल्पना कर लेता है, जिस किसी प्रकार से मन को उल्टा-सीधा समझाता है, तभी एक पर राग और दूसरे पर द्वेष होता है । अतः मुझे इन वस्तुओं से मन पर होने वाले अच्छे-बुरे परिणामों से बचना चाहिए। ___ इतनी बात तत्त्वज्ञानी साधु ही समझ सकता है, और तत्त्व-परायण साधु ही इन विचारों से अपनी आत्मा को बचा सकता है। तत्त्व-परायणता केवल तत्त्व जानने से नहीं कई लोग यह समझते हैं कि तत्त्व जान लिया, इतने भर से तत्त्वज्ञानी बन गये, परन्तु केवल तत्त्वों को जानने मात्र से तत्त्वज्ञान-परायणता नहीं आ जाती, अपितु, तत्त्व को जीवन में उतारने से ही कार्य हो सकता है। अग्नि को केवल जानने या अग्नि के तत्त्व का ज्ञान होने मात्र से रोटियाँ नहीं बन जातीं, पानी के तत्त्व को केवल जानने भर से वह प्यास नहीं बुझा सकता, इसी प्रकार किसी पदार्थ के तत्त्व को जानने भर से काम नहीं चलता, उसके हेय अंश से दूर रहकर उपादेय अंश को अपनाने से ही मनुष्य कृतकार्य हो सकता है । जैसे-असत्य तत्त्व है । इस तत्त्व को हेय जानकर भी यदि मनुष्य बार-बार असत्य में प्रवृत्त होता है तो वह जानना केवल बौद्धिक विलास है । असत्य हेय तत्त्व है; यह जानकर भी असत्य से लिपटे रहने वाले व्यक्ति को क्या आप तत्त्वज्ञ कहेंगे? कदापि नहीं। तत्त्वज्ञ या तत्त्वपरायण वह तभी कहलायेगा, जब वह हेय, ज्ञय और उपादेय को वास्तविक रूप में जानकर हेय का त्याग करे, ज्ञेय को जाने और उपादेय को ग्रहग करे। इसीलिए एक विचारक ने कहा है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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