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________________ सुसाधु होते तत्त्वपरायण -: ६३ करते हैं । वे अपने उच्च आचरण की डींग नहीं हाँकते। ऐसे गुणों के सागर, स्वपरकल्याणसाधक, तत्त्वज्ञानी सुसाधु ही पूजनीय होते हैं । सच्चा तत्त्वज्ञानी सुसाधु अपनी तपस्या, साधना एवं संयम का फल पाने के लिए अधीर नहीं होता । वह अपनी साधना में सतत विवेकपूर्वक रत रहता है, अपनी आत्मशुद्धि के लिए प्रयत्नशील रहता है । उसके जीवन में कितना ही कष्ट, संकट या परीषह आने पर भी दीनता और अधीरता नहीं आती । वह देव ( वीतराग परमात्मा ), गुरु और धर्म पर पूर्ण आस्थावान, विश्वासी एवं दृढ़ श्रद्धालु होता है । वह उनसे भौतिक सुखों की याचना या कामना नहीं करता, सांसारिक सुखों के लिए मन में वाञ्छा भी नहीं करता । वास्तव में जो कुसाधु होता है, उसके रोम-रोम में धर्मसाधना रमती नहीं, वह जरा-सी साधना करते ही प्रसिद्धि के लिए मचल उठता है, चमत्कार - प्रदर्शन के लिए उतावला हो उठता है, जनता से सुख-सुविधा पाने के लिए अधीर हो उठता है । उसकी स्वकल्याण - साधाना भी स्वार्थ साधना बन जाती है, परकल्याण - साधना तो कोसों दूर हो जाती है । वह आत्म-साधना के साथ-साथ विश्वात्म-साधना के विचार और आचार के प्रति रुचि नहीं रखता, न ही उसके तत्त्वज्ञान पाने की उसमें जिज्ञासा होती है । वह तो खाना-पीना और ऐश-आराम करने तथा आलस्य में या दिखावे के लिए कुछ क्रिया-काण्डों में पड़कर अपनी अमूल्य जिन्दगी खो बैठता है । उसका बेष तो साधु का होता है, क्रियाकाण्ड भी साधु के-से होते हैं, पर अन्तर् में उसके साधुता नहीं होती; वह अन्तर् में जाग्रत, विवेकी और तत्त्वज्ञ नहीं होता । यही कारण है कि उसका सब कुछ किया-कराया गुड़ गोबर हो जाता है । ऐसे कुसाधुओं के लिए उत्तराध्ययन सूत्र ( अ० १७) में स्पष्ट कहा हैजे के इमे पव्वइए, निद्दासीले पगामसो । भोच्चा-पेच्या सुहं सुबइ, पावसमणे ति बुच्चई ॥ बहुमाई पमुहरे, यद्ध लुद्ध अणिग्गहे । असंविभागी अचियत्ते, पावसमणे त्ति वुच्चई ॥ विवाद च उदीरेह, अहम्मे बुग्गहे कलहे रत्ते पावसमणे त्ति बुद्धवही विगईओ, आहारे अरए य तवोकम्मे, पावसमणेत्ति अत्तपन्नहा । वुच्चई ॥ अभिक्खणं । वुच्चई ॥ "जो साधु प्रव्रजित होकर ( दीक्षा लेकर ) अत्यन्त निद्राशील रहता है, अपने कर्तव्यों और दायित्वों पर ध्यान नहीं देता, खा-पीकर मजे से सो जाता है, जिसे अपनी साधुता की जरा भी चिन्ता नहीं है, वह पापश्रमण ( पापी साधु ) कहलाता है ।" "वह भी पापश्रमण कहलाता है जो अत्यन्त कपटी है, वाचाल है, मिथ्याभिमानी है, लोभी है, अपनी इन्द्रियों और मन को वश में नहीं रखता, साधर्मी साधुओं के साथ संविभाग नहीं करता और अप्रिय है । " Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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