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सुसाधु होते तत्त्वपरायण-१
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सुसाधुगण ही मेरे गुरु हैं; कुसाधु नहीं । इसलिए सहसा यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि सुसाधु कौन होते हैं ? उनकी पहचान क्या है ? । वैसे तो साधु का अर्थ होता है
'साध्नोति स्वपरकार्याणीति साधुः ।' "जो स्व और पर का कार्य साधता है, वह साधु है । स्व-पर-हित साधना में जो विशेष दक्ष व सुन्दर रीति से लगा हो, वही सु-साधु होता है।"
___ इस दृष्टि से सुसाधु वह नहीं, जो केवल अपने ही स्वार्थ में रत रहता है, अपनी सुख-सुविधाओं की ही चिन्ता करता रहता है, अपनी प्रसिद्धि, अपनी कीर्ति और अपनी प्रतिष्ठा के लिए अनेक आडम्बर और खटपट करता रहता है, परन्तु जहाँ दूसरों के कल्याण, उपकार एवं दूसरों को तत्त्वज्ञान देकर सुधारने-सन्मार्ग पर लाने की बात आती है, वहाँ वह कहने लगता है-“साधु को संसार से क्या मतलब ? साधु को तो अपनी मस्ती में रहना चाहिए। संसारी लोगों के कल्याण के लिए वह नहीं जीता, वह तो अपने कल्याण के लिए ही बँधा है।" ये और इस प्रकार की बहानेबाजी करके जो दूसरे-जिज्ञासु और मुमुक्षु लोगों के उद्धार या कल्याण से बिलकुल किनाराकसी करता है, उसे 'सुसाधु' कहने में संकोच होता है । हाँ, कोई सुसाधु पहले अपने यौवनबय में स्वकल्याण के साथ परकल्याण की प्रवृत्ति कर चुका है, अब भी यथाशक्ति करने के लिए उद्यत रहता है अथवा अब उसने जिनकल्पी साधुता अंगीकार कर ली है, या वह अपंग, अशक्त या असाध्य रोग से पीड़ित है, इस कारण परकल्याण की प्रत्यक्ष प्रवृत्ति नहीं कर सकता है, वह भी सुसाधु ही है।
अथवा क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच (पवित्रता), सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य, इन दसविध साधुता के गुणों से युक्त हो, वह सुसाधु है। दशवकालिक सूत्र में साधु की परिभाषा करते हुए (६ अध्ययन, ३ उद्देशक) में बताया गया है
गुणेहि साहू अगुणेहि साहू । गिण्हाहि साहूगुण मुचऽसाहू ॥ वियाणिया अप्पगमप्पएणं ।
जो रागदोसेहिं समो स पुज्जो ॥ "गुणों से साधु होता है और अगुणों (दुर्गुणों) से अ (कु) साधु । इसलिए साधुगुणों-साधुता–को ग्रहण कर और असाधुगुणों-असाधुता को छोड़ । आत्मा को आत्मा से जानकर जो राग और द्वेष में सम (मध्यस्थ) रहता है, वही पूज्य है।
नकली साधु से असली बनने में कारण : तत्त्वज्ञान की किरण जो वेषधारी और नकली साध होता है, उसकी आत्मा ही उसे कचोटती रहती है, अपने अनिष्ट कार्यों के कारण । आखिर उसकी कलई तो खुल ही जाती
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