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________________ मूर्ख नर होते कोपपरायण ८६ देते-लेते एक छोटा-सा घड़ा असावधानी के कारण अहीरन के हाथ से नीचे गिर पड़ा । वह टुकड़े-टुकड़े हो गया, उसका घी जमीन पर फैल गया। अहीर को अत्यन्त दुःख हुआ। उसने अहीरन को फटकारते हुए कहा-पापिनी, कुलटे ! मालूम होता है, तू कामपीड़ित होकर किसी रूपवान पुरुष को देख रही थी, इसीलिए तो घड़ा ठीक से न पकड़ा, उसे फोड़ डोला।" मूर्ख आदमी को क्रोधावेश में कुछ भी भान नहीं रहता। जब आदमी कोई गलती कर देता है और उसे समझाये जाने पर भी स्वीकार नहीं करता, तब वह गुस्से में लाल हो जाता है। पाश्चात्य विचारक हैलीबर्टन (Haliburton) यही बात कहता हैWhen a man is wrong and won't admit it, he always gets angry. "जब मनुष्य गलती पर हो, और उस गलती को स्वीकार नहीं करता, तब वह गुस्सा हो जाता है।" हाँ, तो उस मूर्खा ने अपनी भूल स्वीकार नहीं की, किन्तु अपने पति के वचन सुनकर होठ फड़फड़ाती हुई भौंहें तानकर बोली-'अरे अधम गँवार ! देख लिया तुझे । खुद तो घी का घड़ा ठीक से पकड़ाता नहीं, अन्यमनस्क होकर सुन्दर कामिनी का मुह देखता रहता है, उल्टा मुझे डाँटता है ?" यह सुनकर उसका मूर्ख पति भी क्रोधाग्नि से दग्ध होकर अंटसंट बकने लगा। बहुत-से तमाशाई लोग मूर्ख पति-पत्नी का झगड़ा देख वहाँ इकट्ठे हो गये। दोनों में गाली-गलौज बढ़ते-बढ़ते हाथापाई और मारपीट होने लगी। इसी धमाचौकड़ी में पैर आगे-पीछे पड़ने से घड़े का सारा घी जमीन पर गिर गया। कुछ घी जमीन चूस गई, कुछ कुत्ते चाट गये और बाकी का घी वहां खड़े हुए चोर ले गये। झगड़ा इतना बढ़ गया कि सूर्य अस्त होने तक वह निपटा । दोनों को थोड़ा होश आया । अतः वे दोनों गाड़ी में बैठे। बेचे हुए घी की रकम लेकर वे अपने गाँव की ओर जा रहे थे। रास्ते में ही रात हो गई। घना अँधेरा हो गया। कुछ लुटेरों ने एकदम इनकी गाड़ी पर हमला बोल दिया । इनसे धनराशि छीन ली, वस्त्र, बैल एवं गाड़ी भी वे लूट ले गए । बेचारे अहीर दम्पती अपना-सा मुंह लेकर घर लौटे। यह है क्रोधपरायण मूर्ती को कोपाविष्ट होने की सजा । ऐसा ही दण्ड प्रायः प्रत्येक कोपपरायण मूर्ख को एक या दूसरे रूप में भोगना पड़ता है। बन्धुओ ! इसीलिए महर्षि गौतम ने सुविज्ञ जिज्ञासुओं को इस जीवन-सूत्र द्रारा सावधान किया है ___'मुक्खा नरा कोवपरा हवंति' आप भी मूों के कोपपरायण जीवन से प्रेरणा लें और ऐसे मूर्खतापूर्ण कोपपरायण जीवन से सौ कोस दूर रहने का प्रयत्न करें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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