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________________ ७६ आनन्द प्रवचन : भाग १० यह एक रूपक है जो मूों पर घटित होता है । मूर्ख अपने आपको अच्छा, उत्कृष्ट और दूसरे को खराब और निकृष्ट समझता है । उसकी यह समझ ही अपने मुँह मियाँ मिठू-पन प्रगट करती है, अपने मुँह से अपनी प्रशंसा मूर्ख ही कर सकता है, अक्लमन्द नहीं। इस प्रकार अहंकार पर चोट लगने से मूर्ख एकदम रोष से भर जाता है, और सामने वाले पर उचित-अनुचित छींटाकशी कर ही देता है । वह अपने जिद्दी स्वभाव के कारण अपनी मूर्खता को दोहराता जाता है, सुधारता नहीं। एक पश्चिमी विचारक ने मूों के सम्बन्ध में उचित ही कहा है "Any man may make a mistake, but none but a fool will continue in it." __“गलती कोई भी मनुष्य कर सकता है, किन्तु मूर्ख के सिवाय कोई उस गलती को लगातार करता नहीं रहेगा।" । एक अधिकारी ने अपने नौकर को हिदायत दी कि किसी की चीज नहीं उठानी चाहिए । एक दिन अधिकारी घोड़े पर सवार होकर कहीं जा रहा था, उसका वह मूर्ख नौकर भी पीछे-पीछे पैदल चल रहा था। रास्ते में अचानक अधिकारी का रूमाल गिर गया। कुछ आगे चलने पर घोड़े ने लीद कर दी। थोड़ी देर बाद अधिकारी को पता चला कि उसका रूमाल कहीं गिर गया है। उसने नौकर से पूछा तो उसने कहा----- "साहब ! मैंने एक जगह आपका रूमाल गिरते देखा था। परन्तु आपका आदेश था, 'किसी की चीज उठानी नहीं चाहिए', इसलिए मैंने नहीं उठाया।" अधिकारी डाँटते हुए बोला- "मूर्ख ! अपनी चीज को उठाने में कोई हर्ज नहीं । जाओ, अपना रूमाल उठा लाओ।" नौकर गया, रूमाल रास्ते में पड़ा था, नौकर ने उसे उठाया और उसमें घोड़े की लीद भी बाँध ली। जब उसने घोड़े की लीद सहित रूमाल अधिकारी को पकड़ाया तो उसने झुंझलाकर पूछा- “अबे बेवकूफ ! इसमें यह क्या बाँधा है ? मूर्ख नौकर ने कहा--"साहब ! यह तो घोड़े की लीद है। वह तो अपनी ही चीज है, इसलिए मैं इसे उठा लाया।" अधिकारी उसकी मूर्खता पर हँसा और नाराज होते हुए कहा - "चला जा, बेवकूफ ! मुझे तुम्हारे जैसा मूर्ख नौकर नहीं चाहिए, जो आदेश को भी ठीक से समझ नहीं सकता।" वास्तव में मूर्ख पहले तो बात को पूरी तरह सुनता-समझता नहीं, दूसरे वह उतावली में आकर अपने मन में समझ लेता है कि मैं सब से समझदार हूँ। मगर मूर्खता को बार-बार दोहराने पर वह स्वयं अनेक संकटों से घिर जाता है। इसीलिए एक भारतीय नीतिकार ने मुर्ख के पाँच चिह्न बताए हैं मूर्खस्य पंच चिह्नानि, गर्वो दुर्वचनी तथा । हठी चाप्रियवादी च, परोक्त नैव मन्यते ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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