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________________ ५२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ अपेक्षा अधिक दुःखी, दयनीय और असन्तुष्ट दिखाई देंगे। विपुल धन-सम्पत्ति, रोजगार, भोग-विलास के प्रचुर साधन, एवं कार, कोठी आदि की सुविधाएँ अपनेआप में जीवन में सुख-शान्ति नहीं देतीं, न दे सकती हैं। धनिक लोग भी घोर अशान्ति एवं दुःख में पड़े देखे गए हैं। प्रसिद्ध धनकुबेर हेनरी फोर्ड की दुःखभरी जिन्दगी किसी से छिपी नहीं है। साधन कभी सुख नहीं दे सकते, यह पूर्णतया प्रमाणित हो चुका है । सुख का मूल स्रोत सन्तोष है। सन्तोष एक ऐसा धन है, जिसके आगे सभी धन नगण्य हैं। राम सतसई में ठीक ही कहा है गोधन, गजधन, वाजिधन और रतन धनखान।। जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूल समान । अगर बाह्यधन मनुष्य के पास हुआ भी तो परिजनों का बिछोह, बीमारी, या मृत्यु के आने पर वह धन क्या काम देगा? कपूत बेटा हो, कुलक्षणा स्त्री हो, कलहप्रिय परिवार हो या अत्याचारी तत्त्वों से समाज दूषित हो रहा हो तो वैभव, धन, साधन, सुविधाएँ या शिक्षा आदि क्या काम दे सकेंगे ? धन से ये समस्याएँ सुलझ नहीं सकेंगी । एकमात्र सन्तोष से, धैर्य और शान्तिपूर्वक प्रयत्न से ही धनिक मनुष्य इन परिस्थितियों में सुख से रह सकेगा। अगर धनिक लोग ऐसी विकट परिस्थिति में धैर्य और सन्तोष को छोड़कर असन्तुष्ट, उद्विग्न, एवं निराश होंगे तो उन्हें मुंह की खानी पड़ेगी, वे असीम दुःखानुभव से घिर जायेंगे। इस सम्बन्ध में मुहम्मद बिन वशीर ने अपने अनुभव की बात कह दी है ___“जबकि सब कामों के रास्ते बन्द हो जाते हैं, उस वक्त सन्तोष ही तमाम रास्ते बिना शक अच्छी तरह खोल देता है।" एक अंग्रेजी कहावत के अनुसार- "सन्तोष कभी खरीदा नहीं जा सकता ।" सन्तोष का उद्गम स्थान हृदय एवं बुद्धि है, बाह्य साधन नहीं। आपने देखा होगा कि बहुत से श्रमिक जितना दिनभर में कमाते हैं, उसे शाम तक खा लेते हैं। कल के लिए उन्हें जरा भी चिन्ता नहीं होती। वे खूब सुख-शान्ति की नींद सोते हैं। उन्हें मस्ती में आकर उछलते-कूदते देखकर प्रतीत होता है, दुनिया में ये ही सबसे अधिक सुखी हैं। उनका यह सुख साधनजन्य नहीं होता, वरन् सन्तोषजन्य होता है। संतोष की मस्ती में ही वे इस तरह विनोदरत होते हैं। चिन्ताएँ तो उन्हें घेरे रहती हैं, जिनकी तृष्णा विशाल होती है । जिन्हें आज की स्थिति से संतोष है, और कल की चिन्ता नहीं है, भला दुःख उनका क्या कर सकेगा? इसीलिए तो मनुस्मृति में कहा है-'सन्तोषमूलं हि सुखम्'-सुख का मूल सन्तोष है। मनुष्यजीवन में जो दुःख और अशान्ति है, वह तृष्णाओं की बाढ़, कामनाओं का अनियंत्रण और असंतुलित भोग की आकांक्षाओं के कारण है । छोटे-छोटे पशु-पक्षी आदि जीवजन्तु अल्पक्षमता और स्वल्पसाधन होते हुए भी दिनभर इधर से उधर चहकते -फुदकते, ? Contentment can never really be purchased. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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