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________________ सुख का मूल : सन्तोष ५१ प्रसन्नचित्त से बोला- "इसमें क्या है ? यह तो मेरा रोजाना का काम है। इस बच्चे की माँ रसोई नहीं बना सकती। यह छोटा लड़का स्कूल जाता है, एक इससे बड़ा लड़का और है, वह आवारा फिरता है। कहीं दूकान पर भी जमता नहीं और न ही पढ़ता-लिखता है। वह भी भोजन नहीं बना सकता। अभी वह घूम-घामकर आएगा और भोजन कर जाएगा।" थोड़ी ही देर में वह लड़का आया और गृहस्वामी ने उसे भोजन कराकर सन्तुष्ट किया। दूकानदार यह सब परिस्थिति देखकर पूछ बैठा-"आप ऐसी कष्टप्रद स्थिति और थोड़ी सी आय में भी कैसे प्रसन्न और सन्तुष्ट रह लेते हैं ?" उसने हँसकर कहा-"जैसा, जो कुछ मिला है, उसी में गुजर-बसर न करके अगर मैं लोगों के सामने अपना दुख रोता फिरूं, मन में कुढ़ता रहूँ, घर के लोगों को कोसता और डाँटता फिरूं तो मैं स्वयं अधिक दुःखी और मानसिक रोगी बन जाऊँगा। इससे बेहतर तो यही है, प्रत्येक परिस्थिति को शान्ति और धैर्य से सहकर सन्तुष्ट और प्रसन्न होकर जीऊँ । इसका मतलब यह नहीं है कि मैं अपनी परिस्थिति को सुधारने के लिए यथाशक्य प्रयत्न नहीं करता, करता हूँ। परन्तु प्रयत्न करने पर भी विशेष सुधार नहीं होता तो मैं कुढ़ता नहीं, प्रसन्नतापूर्वक उसका वरण कर लेता हूँ । सन्तोष मेरी साधना है। मुझे अलग से मन्दिर में नहीं जाना पड़ता, मैं इसी परिस्थिति और गृहवाटिका में रहकर अपनी धर्मसाधना कर लेता हूँ।" दूकानदार प्रभावित होकर नमस्कार करके विदा हुआ। यह है सन्तोषी जीवन का ज्वलन्त उदाहरण ! जुन्नेद के शब्दों में सन्तोष की परिभाषा भी यही है'अहंभाव को छोड़कर विपत्ति को भी सम्पत्ति मानना संतोष है।' ___ संतोषी जीवन : विवेकपूर्ण दृष्टिकोण से यदि मनुष्य थोड़ा-सा विवेक से काम ले तो प्रत्येक परिस्थिति में उसका सन्तुष्ट रह सकना असंभव नहीं है। जो लोग असंतुष्ट रहते हैं, उनके सोचने का दृष्टिकोण बदल जाए तो वे सन्तुष्ट बन सकते हैं । मनुष्य के असंतोष का एक प्रमुख कारण यह है कि वह अपने से अधिक साधन-सुविधा वाले व्यक्ति से अपनी कमी की तुलना किया करता है। जब वह यह सोचता है कि मेरे पास तो केवल एक छोटा-सा मकान ही है, जबकि दूसरों के पास तो ऊँची-ऊँची कोठियाँ हैं, आलीशान बंगले हैं, अमुक के पास इतना धन है, कार है, नौकर-चाकर हैं, बढ़िया कारोबार है और मेरे पास गुजारे लायक ही धन है, केवल एक साइकिल है, जिस पर बैठकर सिर्फ सौ-दो सौ की नौकरी पर जाता हूँ, नौकर-चाकर रखने की तो मेरी हैसियत ही नहीं है। इस प्रकार दूसरों की अपेक्षा अपनी स्थिति को अत्यन्त निम्न, हेय एवं तुच्छ समझ कर खिन्न और अप्रसन्न रहता है, मन में असन्तोष की चिनगारी जलाता रहता है। परन्तु वह जरा गहराई में उतरकर देखे-सोचे, तो उसे वे धनिक लोग उसकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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