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________________ २६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ नरक का मेहमान बना । वहाँ भी वह बोध न पाकर अनन्त संसार में परिभ्रमण करता रहेगा । हाँ, तो मम्मण सेठ ने यहाँ भी अतिलोभवश अनेकों दुःख और क्लेश पाए और आगे घोर नरक में तो दुःख ही दुःख हैं । वहाँ सुख का लेश भी नहीं है । लोभी व्यक्ति की मनोवृत्ति का चित्रण करते हुए एक पश्चात्य विचारक Tillotson ( टिल्लोट्सन) कहता है - "The covetous man heaps up riches, not to enjoy but to have them, he starves himself in the midst of plenty; cheats and robs himself of that which is his own, and makes a hard shift to be as poor and miserable with a great estate as any man can be without it." "लालची आदमी धन का संग्रह करता है, उसका उपभोग करने के लिए नहीं किन्तु उसे सिर्फ रखने के लिए । प्रचुर धन के बीच में रहता हुआ भी वह स्वयं भूखा मरता है, और जो उसका अपना है, उसके बारे में स्वयं को धोखा देता है और लूटता है । साथ ही वह ऐसा कठोर परिवर्तन कर लेता है, जिससे वह बड़ी भारी जायदाद होते हुए भी एक गरीब और अभागा - सा बन जाता है, जैसे कोई व्यक्ति सम्पत्ति से विहीन हो ।" अतिलोभी आत्महत्या तक कर बैठता है अतिलोभी मनुष्य के स्वभाव में एक ऐसा से खर्च करना सह नहीं सकता । अगर कभी खर्च की 'तुलना करता है और जिस बात में खर्च कम खर्च के लिए धन कम रहता है या तिजोरी में हत्या कर बैठता है । दुर्गुण होता है कि वह अपने हाथ करना भी पड़ता है तो वह खर्चों पड़े उसे स्वीकार कर लेता है । धन कम हो जाता है तो वह आत्म यूरोप के एक धनाढ्य ने मरने से पहले एक पत्र लिखकर छोड़ दो करोड़ पौंड धन रह गया था, इसी फिक्र में मैंने आत्महत्या की है ।" स्वयं गोली मारकर आत्महत्या करली । वह गया था, जिसमें लिखा था - "मेरे पास सिर्फ मैं पूछता हूँ, क्या आत्महत्या करने से धनलोभी का दुःख, चिन्ता या कष्ट मिट गया ? कदापि नहीं । उलटे उसने स्वयं आर्तध्यानवश मरकर अपने लिए दुर्ग के 'दुःख को न्यौता दे दिया । Jain Education International अतिलोभी लोभवश दूसरों के पापों को ढोता है कई व्यक्ति अत्यन्त लोभी होते हैं । वे किसी बड़े आदमी को फँसाकर उससे . यह कहकर धन ऐंठ लेते हैं कि 'तुम्हारे पाप हम अपने पर ले लेते हैं और तुम्हें प मुक्त कर देते हैं ।' परन्तु यह भ्रमजाल है । कोई किसी दूसरे के पाप-पुण्य को ले-दे For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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