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________________ दुःख का मूल : लोभ २५ समय लकड़ियाँ खींचकर निकाल रहा है। रानी को उसकी दुर्दशा देखकर बड़ी दया आई । उसने महाराजा श्रेणिक से कहा—'आपके राज्य में ऐसे-ऐसे दुःखी एवं गरीब लोग हैं, आपको उनकी भी संभाल करनी चाहिए।" यह सुनकर राजा को भी उस पर दया आई । उन्होंने अपने सेवक को भेजकर उस व्यक्ति (मम्मण) को बुलाया और पूछा- "अरे वृद्ध ! ऐसा क्या दुःख आ पड़ा है कि इस बरसती बरसात में तू नदी में से लकड़ियाँ निकाल रहा है ?" मम्मण ने कहा-'राजन् ! मेरे यहाँ एक बैल है, उसकी जोड़ी का मुझे दूसरा बैल चाहिए । अतः उसके लिए धन-उपार्जन करने हेतु मैं इस वर्षाकाल में नदी में बहकर जाती हुई लकड़ियाँ इकट्ठी करने आया था । इस मौसम में लकड़ियाँ महँगी हैं, इसलिए कमाई अच्छी हो जाएगी। यही सोचकर में नदीतट पर आया था।" राजा ने तुष्ट होकर कहा-"बस, इतनी-सी बात है । चलो, मैं तुम्हें बैल देता हूँ।' यों कहकर राजा ने गौशाला में अनेक बलिष्ठ, धुरंधर एवं सुन्दर वैल बताए । पर मम्मण सेठ को एक भी बैल पसन्द न आया। तब राजा ने पूछा- "भाई, फिर तुम्हें कैसा बैल चाहिए ?' सेठ बोला-'मेरा एक बैल स्वर्णमय व रत्नजटित है, उसी की जोड़ी का वैसा ही दूसरा बैल चाहिए।' राजा आश्चर्यचकित होकर बोला-“अच्छा हम तुम्हारे साथ चलते हैं, तुम्हारा बैल देखकर फिर सोचेंगे।" राजा श्रेणिक, रानी और अभयकुमार मन्त्री आदि को लेकर मम्मण सेठ के यहाँ पहुँचे । मम्मण सेठ ने सबको तलघर में ले जाकर अपना स्वर्णमय रत्नजटित बैल बताया और कहा-"महाराज ! मुझे ठीक ऐसा ही दूसरा बैल चाहिए।" राजा विस्मित और कुपित होकर बोले-"भले आदमी ! इतने रत्नों और सम्पत्ति का मालिक होते हुए भी तू दरिद्र बनकर यों सर्दी, वर्षा, आंधी और तूफान के कष्ट उठाता है ? तेरे यहाँ किसी बात की कमी नहीं, फिर भी तू लोभवश और सम्पत्ति इकट्ठी करना चाहता है। मान लो, एक बैल और भी हो जाए, तो भी तेरी लालसा शान्त नहीं होगी। याद रख, यह सम्पत्ति तेरे साथ परलोक में नहीं जाएगी, यहीं धरी रह जाएगी। फिर भी तू न खाता है, न खर्चता है और न ही किसी को देता है ! धिक्कार है, तेरे मनुष्य-जीवन को !" राजा की इस फटकार का अतिलोभी मम्मण पर कोई प्रभाव न हुआ । उसने चुपचाप राजा की बात सुनली और उन्हें विदा करके पुनः अपने उसी धन्धे में लग गया। उसने अपनी कृपणतावश लोकनिन्दा, बदनामी आदि की कोई परवाह न की। आवश्यकनियुक्तिकार कहते हैं कि इस अनन्तानुबन्धी लोभ के कारण मम्मण सेठ एक दिन अपने अपार धन और धाम को छोड़कर मर गया और सातवीं For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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