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________________ ४१२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ कलाचार्य उस शिष्य की बात सुनकर सन्न रह गये। यह छात्र मुझे पढ़ाने आया है, मुझसे पढ़ने नहीं । यह कुशिष्य है, ज्ञान का पात्र नहीं। कुशिष्य उपदेश के पात्र क्यों नहीं उत्तराध्ययन सूत्र में शिक्षा के अयोग्य पात्र कौन है ? इसका एक गाथा में उल्लेख कर दिया है अह पंचहि ठाणेहि जेहि सिक्खा न लब्भई । थंभा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण य॥ शिक्षा के लिए अयोग्य पात्र को ५ कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होतीअभिमान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य । कुशिष्य में इनमें से रोग को छोड़कर शेष ४ कारण पाये जाते हैं। गुरुओं से भी ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उन्हें प्रसन्न करके, उनके हृदय को जीतकर तथा उनकी विनय-भक्ति, सेवा-शुश्रूषा करके, परन्तु कुशिष्य में ये सब बातें होती नहीं, इसलिए वह किसी भी बात को-हितकर बात को प्रथम तो सुनना ही नहीं चाहता, अगर सुन भी लेता है तो उसे करना नहीं चाहता, बार-बार कहने पर तो वह ढीठ ही हो जाता है। इसीलिए स्थानांग सूत्र (स्था० ३ उ० ४) में तीन व्यक्तियों का समझाना दुष्कर बताया है तओ दुसन्नप्पा पण्णत्ता, तं जहा-दुठे, मूढे, बुग्गहिए । . "तीन को समझाना कठिन कहा है-(१) दुष्ट (ज्ञानियों के प्रति द्वेषी) को, (२) मूढ़ (गुण-दोष के अनजान, अज्ञान) को, तथा (३) व्युद्ग्राहित (कुगुरु के बहकाएँ हुए या विग्रह-कलह वाले) को।" उत्तराध्ययन सूत्र (अ० २७) में कुशिष्य के लक्षण बहुत स्पष्ट रूप से बताये हैं- "जिस प्रकार कोई गाड़ीवान दुष्ट बैलों को गाड़ी में जोत देता है, वह उन बैलों की करतूत देखकर पछताता है, वे जूए को तोड़ फैकते हैं, गाड़ी को लेकर ऊजड़ मार्ग में चले जाते हैं, बार-बार रास्ते के बीच में ही बैठ जाते हैं, वे जानबूझकर गाड़ी को उलट देते हैं, जिससे गाड़ी में रखा हुआ सामान भी गिर जाता है। इसी प्रकार के कुशिष्य होते हैं, जिन्हें धर्मसारथी गुरु धर्मयान में जोड़ देता है, लेकिन वे धृति और बुद्धि से निबंल कुशिष्य जुआ उतारकर भाग जाते हैं, धर्ममार्ग को छोड़कर उन्मार्ग पर चल पड़ते हैं। धर्मयान को ही तोड़ फैकते हैं। कुछ कुशिष्य ऋद्धि के, कुछ रस के और कुछ सुख-साधन के प्राचुर्य को देखकर गर्वित हो जाते हैं। कुछ क्रोधी, झगड़ालू, उद्दण्ड और प्रतिकूलभाषी होते हैं। कुछ शिष्य भिक्षा आदि लाने में आलसी, कुछ अपमानभीरु, एवं कुछ अभिमानी होते हैं। युक्तियों से समझाने पर भी तथा आत्मीयता के कहने पर भी वे दोष ही देखते हैं, पुनः-पुनः उसी अपराध को करते जाते हैं।" गााचार्य स्थविर के अनेक शिष्य थे, लेकिन सभी कुशिष्य के लक्षणों से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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