________________
कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलाप ४११
नहीं माना जा सकता । यह स्पष्ट पहचान है कुशिष्य की कि वह गुरु की आज्ञा नहीं मानता, उनके निकट नहीं बैठता, उनके प्रतिकूल आचरण करता है, तथा तत्त्वज्ञान से शून्य एवं अविनीत होता है । नीतिज्ञ चाणक्य शब्दों में- ' वरं न शिष्यो, न कुशिष्य शिष्य : ' " शिष्य का न होना अच्छा है, किन्तु कुशिष्य का शिष्य होना अच्छा नहीं ।" क्योंकि कुशिष्य गुरु के मन में संक्लेश बढ़ाता है, उन्हें बदनाम कराता है, उनका शत्रु एवं द्व ेषी बन जाता है । भगवान् महावीर का शिष्य गोशालक कुशिष्य था, जो अपने परमगुरु से सब कुछ सीखकर, उनके उपकार को भूलकर उनका विरोधी, निन्दक एवं आलोचक बन बैठा । एक उदाहरण द्वारा इसे समझाना ठीक होगा -
एक कलाचार्य थे, उनके पास एक छात्र विद्याध्ययन करने को आया । कलाचार्य से उसने बहुत अनुनय-विनय किया कि उस साधनविहीन को अपने आश्रम में स्थान एवं विद्यादान देकर कृतार्थ करें । कलाचार्य ने उस छात्र को अपनी झोंपड़ी में स्थान दे दिया ।
एक रात को गुरु-शिष्य झौंपड़ी में सो रहे थे । आश्रम के अगले भाग में एक दीपक जल रहा था । गुरु प्रतिदिन उसे बुझाकर सोया करते थे, पर आज वे बुझाना भूल गये थे । अतः उन्होंने शिष्य से कहा - " जाओ, दीपक बुझा आओ ।" ठंडी रात थी, सोया हुआ शिष्य आलस्यवश उठना नहीं चाहता था, किन्तु गुरु ने काम सौंप दिया, अतः क्या करे ? उस कुटिल छात्र ने वक्रता से कहा- " गुरुजी ! आप अपना मुँह ढाँक लें, और अपने लिए दीपक बुझा हुआ समझ लें । "
गुरु ने सोचा - कैसा आलसी है ? उठना नहीं चाहता । पर इसे उठाना चाहिए । अतः कलाचार्य ने फिर आवाज दी तो बोला - "कहिए न, क्या काम है ?" गुरु बोले- "देखो तो वर्षा थमी या नहीं ?" शिष्य ने सोचा- अब बिना उठे काम नहीं चलेगा, फिर भी उसने अपनी कुबुद्धि और तू-तू करके बाहर कुत्ते को अन्दर अपने पास बुला लिया और उसके शरीर पर हाथ फिराकर देख लिया । कुत्ते का शरीर सूखा लगा, इसलिए कह दिया कि वर्षा बन्द है । पर वह उठा बिलकुल नहीं ।
गुरुजी उसकी कुटिलता पर हैरान थे । पर उन्होंने भी ठान लिया -- आज इसे उठाना जरूर है । अतः फिर पुकारा - " अरे ! कुटिया का दरवाजा खुला रह गया है, बन्द कर आओ तो !” वह सोचने लगा- आज गुरु क्यों मेरे पीछे पड़े हैं। मुझे वे ज्यों-त्यों करके उठाना चाहते हैं, पर मैं भी । वह तपाक से बोला"गुरुजी ! दो काम मैंने कर दिये । एक काम तो आप भी कर लीजिए । सारे दिन बैठे रहने से शरीर स्थूल हो जाता है ।" यों कहकर वह मुँह ढाँककर आराम से सो गया, उठा नहीं ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org