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________________ कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलाप ३९६ एक नौजवान चौधरी (किसान) जंगल में घूमता-घामता एक साधु बाबा की कुटिया में जा पहुँचा। पहुँचते ही साधु बाबा के पैर दबाने लगा। उसके द्वारा पैर दबाने से थोड़ी देर में साधु बाबा की थकान दूर हो गई । बाबा ने सोचा-"यदि ऐसा चेला मिल जाए तो मेरा बुढ़ापा सुख से कट जाय ।" इसी आशा से बाबा ने पूछा"अरे, चेला बनेगा ?" वह भी चौधरी था । सीधा तो क्या उत्तर देता, पूछा-"प्रभु ! चेला क्या होता है ?" बाबाजी ने समझाया- "देख, गुरु और चेला दो होते हैं। गुरु का काम आज्ञा देने का होता है और चेले का काम है-दौड़-दौड़कर उनकी आज्ञा का पालन करना।" इस पर चौधरी कुछ देर सिर खुजलाकर बोला- "चेला बनने की तो कुछ कम जची है, हाँ, गुरु बनाएँ तो मैं बन जाऊँ !" गुरुजी बेचारे भौंचच्के से देखते ही रह गए। हाँ, तो आजकल गुरु बनने बनने वाले बहुत हैं, चेला-सुशिष्य बनने वाले विरले ही मिलते हैं। गुरु के कर्तव्यों को अदा न करने वाले शिष्यलिप्सु ऐसे शिष्यलोलुप साधु स्वयं अपने उत्तरदायित्व से गिर जाते हैं। केवल शिष्य मुंड लेने मात्र से ही गुरु के कर्त्तव्य की इतिसमाप्ति नहीं हो जाती। वरन् शास्त्रों में शिष्यों के प्रति गुरु के कुछ दायित्व एवं कर्तव्य बताये हैं। जो उन दायित्वों एवं कर्तव्यों से दूर भागकर केवल शिष्यों के सिर पर दोष मढ़ देता है, वह गुरु या आचार्य, गुरुपद या आचार्यपद के अयोग्य होता है । देखिए 'गच्छाचारपइन्ना' (२/१५१६) में स्पष्ट कहा है संगहोवग्गहं विहिणा न करेइ यं जो गणी। समण-समणी तु दिक्खित्ता समायारी न गाहए ॥ बालाणं जो उ सीसाणं जीहाए उलिपए। ते सम्ममग्गंन गाहेइ, सो सूरी जाण वेरिउ ॥ जो आचार्य या गुरु आगमोक्तविधिपूर्वक शिष्यों के लिए संग्रह (वस्त्र, पात्र, क्षेत्र आदि का) तथा उपग्रह (ज्ञानदान आदि का) नहीं करता। श्रमण-श्रमणी को दीक्षा देकर साधु समाचारी नहीं सिखाता एवं बालक शिष्यों को सन्मार्ग में प्रेरित न करके केवल गाय-बछड़े की परह उन्हें जीभ से चूमता या चाटता है, वह आचार्य (गुरु) शिष्यों का शत्रु है। नीतिवाक्यामृत में तो और भी स्पष्ट खोलकर कह दिया है स कि गुरु पिता सुहृद् वा योऽभ्यसूययाऽभं बहुदोषं। वहुषु वा प्रकाशयति, न शिक्षयति च ॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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