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________________ ३९८ आनन्द प्रवचन : भाग ६ आचार्यश्री ने कहा- "वत्स ! वह लावण्यमय थी या कुरूप ? यह विचार तो मेरे मन में कतई नहीं आया, मेरे मन में तो एक असहाय को इस संकट के समय अपवादस्वरूप सहायता करने का ही विचार था।" शिष्य उस समय तो कुछ नहीं बोला। दूसरे दिन शिष्य ने फिर वही प्रश्न उठाकर कहा- "गुरुजी ! आपने उसका कुछ प्रायश्चित्त लिया ?" गुरुजी बोले"मैंने तो उस बाई को कंधे से भी उतार दिया और दिमाग से भी निकाल दिया, पर तेरे दिमाग में अब भी वह भरी हुई है, इसलिए तू प्रायश्चित के योग्य है, कि ऐसे कुविचार मन में लाता है। पापकर्म के उदय से तेरी दृष्टि विकृति की ओर ही जाती है।" शिक्षित और शास्त्रज्ञ कुशिण्य तो और भी बुरे हैं ___ वास्तव में ऐसे शिष्यों से गुरु को अत्यन्त मानसिक क्लेश होता है । ऐसे शिष्य अगर कुछ शिक्षित और शास्त्रज्ञ हो जाते हैं, फिर तो कहना ही क्या? उनके पंख लग जाते हैं, और पद-पद पर वे गुरु का अपमान करने से नहीं । चूकते । अक्खा भगत के शब्दों में उस कुशिष्य का रूप देखिए देहाभिमान हतुं पाशेर, विद्या भणता वाध्यो शेर, गुरु थयो त्यां मणमां थयो। पहले सिर्फ पावभर शरीराभिमान था। कुछ विद्या पढ़ ली तो वह अभिमान सेरभर हो गया, अर्थात चार गुना अभिमान बढ़ गया और फिर उस शिष्य के कोई शिष्य हो गया तो फिर पूछना ही क्या, फिर तो अभिमान ४० गुना बढ़ गया। इस प्रकार शिक्षित एवं अभिमानी कुशिष्य अपने गुरु की पद-पद पर अवगणना किया करता है। गुरु लोभी और शिष्य लालची आजकल शिष्य बनने वालों की हालत ऐसी है कि वे अपना वैराग्य-भाव इतना जताते हैं कि गुरु भी चक्कर में पड़ जाता है और उनके द्वारा की जाने वाली चापलूसी, वाचालता आदि को विनय एवं नम्रता समझने लगता है। कई बार तो गुरु को शिष्य बनाने का लोभ होता है, और शिष्य को प्रतिष्ठा, सम्मान एवं सुख-सुविधापूर्वक आहार-पानी आदि प्राप्त होने का लोभ होता है। दोनों ही लोभवश अपना-अपना दाँवपेंच लगाते हैं । इसीलिए कहा है गुरु लोभी चेला लालची, दोनों खेले दाव । दोनों डूबे बापड़े, बैठ पत्थर की नाव ॥ गुरु तो बन सकता हूँ, शिष्य नहीं ___ वास्तव में देखा जाए तो ऐसे लालची शिष्य, शिष्य बनने से पहले ही गुरु बन जाने का दांव लगाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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