SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८८ आनन्द प्रवचन : भाग ६ उक्त महिला ने सन्दूक खोली और खुशी-खुशी अपने बहुमूल्य आभूषण जोसे बेन को दे दिये। आभूषण हाथ में लिये बेन ने पूछा- "अभी-अभी एक दूसरा व्यक्ति आया था, आपने उसे आभूषण क्यों नहीं दिये ?" ___महिला छूटते ही बोली-"असभ्यों और मूरों को भी कोई अच्छी वस्तु दी जाती है ?" इस पर तुरन्त ही रब्बी जोसे बोल पड़े-"तब फिर परमात्मा ही अपनी अच्छी वस्तुएँ कुपात्र को क्यों देने लगा ?" __ महिला अपने प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर पाकर बड़ी प्रसन्न हुई। सचमुच विक्षिप्तचित्त उपदेश या आत्मज्ञान के लिए कुपात्र होते हैं, उन्हें ये उत्कृष्ट वस्तुएँ देना गटर में इत्र को ढोलना है। व्यवहार में भी विक्षिप्तचित्त को कोई बात नहीं कहता _ व्यावहारिक जगत् में भी यह देखा जाता है कि पागल आदमी को कोई अच्छी बात नहीं कहता, न घर की किसी जिम्मेदारी की बात उसे कही जाती है, व्यापार सम्बन्धी कोई भी बात उससे नहीं कही जाती, क्योंकि वह पागल है, उसका चित्त विक्षिप्त है, दिमाग अस्थिर है, वह किसी भी बात को ग्रहण करने, याद रखने और टिकाने लायक नहीं होता। इसी प्रकार जिसका चित्त विक्षिप्त है, उसे भी कोई कथा, उपदेश या तत्त्वज्ञान की बात कहना बेकार का प्रलाप है, वह उसे बिलकुल ग्रहण नहीं करता। एक गाँव में एक ब्राह्मण नया-नया आया था। वह एक चबूतरे पर बैठकर कुछ भेंट-दक्षिणा पाने की आशा से कथा कहने लगा। एक-दो श्रोतागण आगए थे। ब्राह्मण को कथा कहते-कहते जब दो घड़ी होगई, तब उसने श्रोताओं से पूछा"बोलो, कुछ समझे ?" एक अन्यमनस्क-सा लड़का बैठा था, वह बोला-"हाँ, समझ गये।" ब्राह्मण ने पूछा-'कहो तो क्या समझे ?" वह लड़का बोला- "तुम्हारी गर्दन हिल रही थी।" विप्र बोला—“तूने यह क्या ग्रहण किया ? मैं जो कहता हूँ, उसमें से कुछ ग्रहण कर।" वह बोला-"तो फिर दुबारा कथा कहो तो मैं कुछ ग्रहण करूं।" तब ब्राह्मण पुनः कथा कहने लगा। कहते-कहते जब दो घड़ी होगईं तो ब्राह्मण ने पूछा"बोलो कुछ ग्रहण किया ?" वह गँवार लड़का बोला-"मैंने ठीक-ठीक गिनती करली, इस दर में से ७०० चींटियां निकलीं और ७०७ घुसी।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy