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________________ विक्षिप्तचित्त को कहना : विलाप ३८७ विचारों में उसकी रुचि जगा देना और सतत अभ्यास कराना आवश्यक है । अन्यथा चित्त कुविचारों में रस लेता रहा तो स्वेच्छाचारी और कुस्वभाव का बन जायगा । सौ बात की एक बात है कि चित्त को विक्षिप्त होने से बचाने के लिए आप उसे एक शुभ विचार में केन्द्रित करने का प्रयत्न कीजिए। हमारे शास्त्रों में वर्णन आता है— 'एक्कपोग्गल निविट्ठदिट्ठिए' अर्थात् साधक एक पुद्गल में अपनी दृष्टि जमा लेता है । इसका मतलब है, चित्त को एकाग्र करने के लिए एक ही सत्कार्य, एक ही शुद्ध विचार, एक ही किसी बात या वस्तु में अपने चित्त को संलग्न करने का अभ्यास करना चाहिए । विक्षिप्त चित्त: उपदेश के लिए कुपात्र यही कारण है कि महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र द्वारा बता दिया कि विक्षिप्त चित्त वाले व्यक्ति को कोई भी उपदेश या हितकर बात कहना विलाप - तुल्य है । यह है कि जिसका चित्त विक्षिप्त होता है, वह उपदेश का पात्र नहीं होता । जैसे चलनी में जो भी कुछ डाला जाता है, वह बाहर निकल जाता है, वैसे ही विक्षिप्तचित्त के दिमागरूपी पात्र में जो कुछ भी डाला जाता है, वह सबका सब बाहर निकल जाता है । विक्षिप्तचित्त का दिमाग चलनी के समान उपदेशरूपी पदार्थ को ग्रहण नहीं कर पाता। इसलिए वह उपदेश के लिए कुपात्र है, अयोग्य पात्र है । जो कुपात्र होता है उसे ज्ञान, विवेक, भक्ति, श्रद्धा या बोध कोई भी समझदार पुरुष नहीं देता । एक परमात्मभक्त था - रब्बी जोसे बेन । उसने एक बार एक महिला से कहा—“परमात्मा ज्ञान, विवेक, शक्ति और शान्ति सत्पात्र को देता है, अज्ञ और अन्धकार में डूबे हुओं को नहीं ।" इस पर वह महिला बड़ी नाराज हुई और बोली - " इसमें परमात्मा की क्या विशेषता रही ? होना तो यह चाहिए था कि असभ्य व्यक्तियों को वह यह सब देता, तो उससे संसार में अच्छाई का विकास तो होता । " रब्बी उस समय चुप होगए । बात जहाँ की तहाँ स्थगित कर दी । दूसरे दिन सुबह उन्होंने मुहल्ले के एक मूर्ख व्यक्ति को बुलाकर कहा - "अमुक महिला से जाकर आभूषण माँग लाओ ।" मूर्ख वहाँ गया और आभूषण माँगे तो उसने न केवल आभूषण देने से इन्कार किया, अपितु उसे झिड़ककर वहाँ से भगा दिया । थोड़ी देर बाद रब्बी जोसे स्वयं महिला के यहाँ पहुँचे और बोले— “आप एक दिन के लिए अपने आभूषण दे दें, आवश्यक काम होते ही लौटा दूँगा ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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