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________________ परमार्थ से अनभिज्ञ द्वारा कथन : विलाप ३६७ पर अगर उसकी आँखें खुली नहीं हैं, या नेत्रों में देखने की ज्योति नहीं है तो बाहर के किसी भी प्रकाश का कोई भी मूल्य नहीं रह जाता है, जीवन में । एक राजा की सभा में यह प्रश्न छिड़ गया कि जगत् में सबसे बड़ा प्रकाश कौन-सा है । इस पर एक पण्डित ने कहा - "इसमें क्या पूछना है, सूर्य का प्रकाश ही सबसे बड़ा है ।" दूसरे पण्डित ने इसका प्रतिवाद करते हुए कहा - " सूर्य का प्रकाश प्रकाश होते हुए बहुत तपता है, वह आनन्ददायक नहीं । प्रकाश तो चन्द्रमा का अच्छा है, जो शीतल भी है, आनन्ददायक भी । इसलिए मेरी समझ में सबसे बड़ा प्रकाश चन्द्रमा का है ।" इस तरह एक के बाद एक पण्डित बोले । किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ । एक अन्य पण्डित ने कहा - " राजन् ! चन्द्रमा, सूर्य और अन्य प्रकाश तो केवल मकानों या खुले मैदानों में रोशनी पहुँचाता है, लेकिन घर के अन्दर कोने में सूर्य, चन्द्रमा की रोशनी नहीं पहुँच पाती, वहाँ नन्हा सा मिट्टी का दीपक ही प्रकाश पहुँचाता है, अंधेरे को मिटाता है । इसीलिए दीपावली पर्व का सारा दारोमदार मिट्टी के दीपक पर है, उसी को इस पर्व का दायित्व सौंपा गया है ।" इस सारी चर्चा के दौरान एक दार्शनिक पण्डित चुपचाप बैठा रहा । राजा ने उसे चुप देखकर कहा— “आप भी तो कुछ कहिए ।" उसने कहा - " कहने की अपेक्षा सुनना अधिक अच्छा है । मगर आपका अनुरोध है तो मैं भी कुछ कहूँगा । बात यह है कि सूर्य, चन्द्रमा, दीपक या अन्य सभी प्रकार के प्रकाश प्रकाश हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं; लेकिन सबसे बड़ा प्रकाश तो इन छोटे-से नेत्रों में है । आँख के छोटे-से केन्द्रबिन्दु में जो ज्योति जल रही है, वही तो सबसे बड़ा प्रकाश है । और सब प्रकाश तो हों, लेकिन यह प्रकाश न हो तो कुछ नहीं है, सर्वत्र अन्धकार है । अगर आँखों की रोशनी बुझ गई है या धुंधली पड़ गई है तो हजारों सूर्य प्रकाशित हो जाएँ, लाखों चन्द्रमा और करोड़ों दीपक भी प्रकाशित होते रहें, इनके प्रकाश का जरा भी पता नहीं लगेगा । इनके प्रकाश का मूल्य उसके लिए कुछ भी नहीं रहता । अतः सबसे बड़ा प्रकाश तो इन दो नेत्रों का है ।" हाँ तो, मैं कह रहा था कि जिसके जीवन में अनुभूति के दिव्य नेत्रों का प्रकाश नहीं है, उसके सामने लाख-लाख धर्मग्रन्थों और शास्त्रों का अथवा महापुरुषों का प्रकाश हो तो किस काम का ? जो बात अनुभव से सिद्ध होती है, वह शास्त्रों के पन्ने पलटने से नहीं हो सकती । ऐसे सैकड़ों उदाहरण हमारे सामने हैं, जिनसे पता चलता है कि सैकड़ों शास्त्रों के विद्वान् शब्दजालरूप महारण्य में फँसे रहते हैं और एक अनुभूतिसम्पन्न, शब्दशास्त्र से अनभिज्ञ व्यक्ति उस उलझन को फौरन सुलझा देता है । तथागत बुद्ध के जीवन की एक घटना है । एक दिन कुछ चतुर एवं बुद्धिमान लोग एक अन्धे आदमी को उनके पास ले गये । उन्होंने कहा - "भंते ! यह आदमी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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