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________________ ३६६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ हितैषीजनों ने उसे समझाया कि "तुम तो जीवित बैठे हो, फिर तुम्हारी पत्नी कैसे विधवा होगई ?" उसने कहा-“मेरी ससुराल में किसी ने कहा है, भला वह झूठ क्यों बोलेगा ?" आज स्थिति ऐसी है कि अधिकांश शिक्षित और शास्त्रों को पढ़ने एवं रटने वाले लोग ऐसी तीव्र अनुभूति से रहित हैं, वे केवल शाब्दिक या आनुमानिक ज्ञान के आधार पर दूसरों को तत्त्वज्ञान की बातें कहते रहते हैं, जो कि अधूरा ज्ञान है । उसी तीव्रानुभूति के अभाव में आज अध्यात्मज्ञान आचरणविहीन, लंगड़ा और एकांगी हो गया है। संत कबीरजी ने इसीलिए इस अनुभूत सत्य को प्रस्तुत किया था . . मेरा-तेरा मनुवा कैसे एक होय रे ? मैं कहता हूँ आँखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी। ___ मैं कहता सुरझावनहारी, तु राखा उरझाय रे॥ निष्कर्ष यह है कि अनुभव-ज्ञान के बिना केवल पढ़े-सुने या लिखे ज्ञान को ही सब कुछ ज्ञान मानकर आज कई धुरन्धर पण्डित गर्ज रहे हैं, और अपने आपके महान् ज्ञानी होने का दावा करते हैं । वास्तव में तीव्र अनुभूति के बिना महाज्ञानी या अध्यात्मज्ञानी होने का दावा करके दूसरों के माध्यम से किसी बात को दूसरे के दिमाग में ठसाना बहुत खतरनाक है। उससे जीवन में विसंगति होती है, आत्मतृप्ति नहीं। आत्मिक उत्क्रान्ति होने के बदले स्थितिस्थापकता आ जाती है। इसीलिए कबीरजी ने साफ-साफ कह दिया पण्डित और मशालची, दोनों सूझे नाहिं । औरन को कर चाँदना, आप अंधेरे माहि ॥ दीपक दूसरे पदार्थों को प्रकाशित करता है, मगर स्वयं उसके तले तो अंधेरा ही रहता है, इसी प्रकार जो तथाकथित अध्यात्मज्ञानी हैं, वे तीव्र अनुभूतिहीन होने के कारण दूसरों को समझाने के लिए कमर कसे रहते हैं, मगर स्वयं प्रत्यक्ष अनुभूति से रहित होने से अधूरा समझे बैठे हैं । इसीलिए कहा है 'स्वाज्ञानज्ञानिनो विरलाः' 'अपने अज्ञान को जानने वाले जगत् में विरले ही हैं ।' स्वयं में प्रकाश नहीं, वे दूसरे प्रकाश को नहीं जानते जीवन में सबसे बड़ी शक्ति अपने आपको देखने-परखने की है । यदि यह प्रकाश किसी के पास है तो वह सच्चा ज्ञानी है। अगर यह प्रकाश नहीं है तो वेदों और पुराणों का, जैनागमों और पिटकों का प्रकाश भी किस काम का? अमुक धर्म और संस्कृति का प्रकाश भी क्या काम आएगा? दुनियाभर के प्रकाश उसके सामने चमकें, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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