SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्यशरण सदैव सुखदायी १७ सुविधाएँ मिली हैं । वर्तमान में किये जाने वाले असत्याचरण का फल तो भविष्य में मिलेगा, सम्भव है-इस जन्म में ही मिल जाए। जिन व्यक्तियों ने आध्यात्मिक विकास किया है, उन्होंने सदैव सत्य का सहारा लिया है। सत्य की उपेक्षा करके कोई भी व्यक्ति आत्मकल्याण के पथ पर अग्रसर नहीं हुआ। सत्य ही साधकजीवन की शोभा है। जैसे आँख के अभाव में सारे शरीर की सुन्दरता फीकी पड़ जाती है, वैसे ही सत्य के अभाव में अन्य सब व्रतों, नियमों या त्यागों की सुन्दरता फीकी पड़ जाती है । सत्यशरण कैसे ग्रहण करें? सत्य की शरण में जाने का अर्थ है-सत्य के सामने अपना सर्वस्व समर्पण कर देना । सत्य की शरण में जाने वाला मन-वचन-काया से सत्य-विचार, सत्यवाणी और सत्य-आचरण करेगा। मन में कदापि असत्य-विचार को प्रश्रय नहीं देगा, वाणी पर भी असत्यता नहीं आने देगा, और न अपने व्यवहार में कभी असत्यता का अवलम्बन लेगा । वह व्यापार में, राजनीति में, धर्म और समाज के क्षेत्र में यहाँ तक कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, हर मोड़ पर सत्य का ही अवलम्बन लेगा। परमात्मा को सत्यमय मानकर वह सत्यनिष्ठा से जरा भी नहीं चूकेगा । मनुष्य लोभ, भय, क्रोध, हास्य, द्वेष, ईर्ष्या, अंधविश्वास, अहंकार आदि विकारों के वशीभूत होकर सत्य से चूक जाता है। किन्तु सत्यव्रतधारी सर्वत्र सत्य के ही रंग में रंगा रहेगा । वह सत्य की रक्षा के लिए सतत संघर्ष करेगा । सत्याचरण में कठिनाइयों, विघ्नों आदि की देखकर वह पीछे नहीं हटेगा, न असत्य का आश्रय लेगा । सत्य का माहात्म्य बताते हुए महाभारत में कहा है-- सत्यं ब्रह्म तपः सत्यं, सत्यं विसजते प्रजाः । सत्येन धार्यते लोकः, सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥ -सत्य ब्रह्म है, सत्य तप है, सत्य ही जनता को जन्म देता है, सत्य ही सारे संसार को धारण करता है, संसार के सभी पदार्थ सत्य पर प्रतिष्ठित हैं। सत्य का साधक साध्यशुद्धि की तरह साधनशुद्धि पर भी पूरा ध्यान देता है। वेदवादी कट्टर ब्राह्मण शय्यंभव यज्ञ कर रहे थे, उस समय आचार्य प्रभव के शिष्यों ने यज्ञशाला के निकट से गुजरते हुए कहा--"अहो कष्ट, अहो कष्टं, तत्त्वं न ज्ञायते ।" शय्यंभव के पाण्डित्य को यह चुनौती थी। इतना बड़ा पण्डित और अभी तक तत्त्व का ज्ञान नहीं कर पाया । जैन मुनियों से पूछा- “भला, यह तो बताओ, यथार्थ तत्त्व क्या है ?" "यथार्थ तत्त्व जानना है तो वह हमारे गुरुदेव की चरणसेवा से ही उपलब्ध हो सकेगा ।'' मुनियों ने उत्तर दिया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy